( 1222 1222 1222 1222 )
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नदी इंकार मत करना कभी तू अपनी क़ुर्बत से
समुन्दर बेसहारा हो न जाये तेरी हरकत से
हमेशा वक़्त हो महफ़िल सजाने लुत्फ़ लेने का
ख़ुदाया दूर रखना ज़िंदगी भर शाम-ए-फ़ुर्क़त से
जहाँ में हर बशर को नैमत-ए-उल्फ़त अता करना
कहीं भी रब न रह पाए कोई महरूम चाहत से
ज़रा सी गुफ़्तगू शीरीं भी करना सीख लो मीरों
हमेशा मसअले हल हो नहीं सकते हैं ताक़त से
हमारे हिन्द के फौज़ी नहीं अब हैं किसी से कम
पड़ोसी बाज़ आ जा तू ज़रा अपनी हिमाक़त से
गुनाहों की तरफ चल दें न ये मजदूर बेबस हों
न हासिल हो उन्हें रोटी अगर मेहनत मशक़्क़त से
वबा ने शान-ओ-शौकत ऐश और आराम छीने सब
किया आगाह पंगा लेना मत इंसान क़ुदरत से
ख़ुदा के हाथ की कठपुतलियाँ हैं लोग दुनिया में
कराया रू ब रू इंसान को फिर इस हक़ीक़त से
शजर को काटना छाती ज़मीं की चीरना छोड़ें
'तुरंत' इंसान सीखें ये सबक़ सारे शराफ़त से
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'समुन्दर बेसहारा हो न जाये तेरी हरक़त से'
इस मिसरे में 'हरक़त' में 'क' के नीचे नुक़्ता नहीं लगेगा,और एक बात आपकी जानकारी के लिए बताना चाहता हूँ कि वैसे तो "हरकत" शब्द को हम सब 22 पर लेते हैं,लेकिन इसका सहीह वज़्न 112 होता है ।
'न हासिल हो उन्हें रोटी अगर मेहनत मशक्क़त से'
'मशक्क़त'--"मशक़्क़त"
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