2×15
इतने दिन तक साथ निभाया उतना ही अहसान बहुत.
दिल का क्या है, ख़ाली घर था, थे इसमें अरमान बहुत.
हैरानी से पूछ रहा था इक बच्चा नादान बहुत,
गर्मी के मौसम में ही क्यों आते हैं तूफान बहुत.
हद से ज्यादा देखभाल का कोई लाभ नहीं पाया,
मेरे हाथों मेरे घर का टूट गया सामान बहुत.
ऐसे ऐसे मोड़ हमारे रस्ते में आये यारो,
जिनमें फंसकर लगने लगा था जालिम है भगवान बहुत.
फिर इक दिन वो मुझसे मिलकर दिल की बात बताएंगे,
इस आशा में काट रहा हूँ जीवन पथ सुनसान बहुत.
सीधी-सादी बात यहाँ पर समझ नहीं पाता कोई,
और तसल्ली देते सबको दीवारों के कान बहुत.
मेरे साथी मैं सारा दुख इक मिसरे में कहता हूँ,
तुझसे जुदा होकर लगता है,मरना है आसान बहुत.
बहरे मीर में लिखने का भी अपना सुख है दीवानों,
यूँ तो ग़ज़लों को कहने में हासिल है अरकान बहुत.
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ. भाई मनोज अहसास जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय रवि शुक्ला जी
ग़ज़ल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक आभार
सादर
आदरणीय अमीर साहब
सुझाव के लिए हार्दिक आभार सादर
आदरणीय मनोज अह्सास जी , अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार करें।
कुछ तो सोचा होगा उसने दुनिया देख रहा है जो
आप भले कह लें उसको ये ज़ालिम है भागवान बहुत
जनाब मनोज अह्सास जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार करें।
उर्दू के लफ़्ज़ों ज़्यादा, ज़ालिम में नुक़्ता लगा लें। सादर।
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