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गली से जाते हुए पैरों के निशान मिले
कहीं पे उजड़े हुए-से कई मकान मिले
ये अपने-अपने मुक़द्दर की बात है भाई
मुझे ज़मीं न मिली तुमको आसमान मिले
किसी ज़माने में उनके बहुत क़रीब थे हम
अभी तो फ़ासले ही सिर्फ़ दरमियान मिले
इसे भी बेचने आए थे लोग मंडी में
कहीं पे दीन मिला और कुछ ईमान मिले
मैं चढ़ के आ तो गया हूँ ऊँचाई पर लेकिन
मुझे भी ज़ीस्त में छोटी-सी इक ढलान मिले
क़बा के नाम पे चीथड़े थे जिस्म पर कल तक
बदन पे उसके कई रेशमों के थान मिले
मैं चल सका न बहुत दूर थक गया 'सालिक'
क़दम-क़दम पे मगर रोज़ इम्तिहान मिले
*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय तेज वीर सिंह साहब
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और सराहना के लिए हृदय तल से आभार.
हार्दिक बधाई आदरणीय सालिक गणवीर जी। बेहतरीन गज़ल।
ये अपने-अपने मुक़द्दर की बात है भाई
मुझे ज़मीं न मिली तुमको आसमान मिले
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और सराहना के लिए ह्रदय से आभार.
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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