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ग़ज़ल ( गली से जाते हुए पैरों के निशान मिले....)

1212 1122 1212 22/112

गली से जाते हुए पैरों के निशान मिले
कहीं पे उजड़े हुए-से कई मकान मिले

ये अपने-अपने मुक़द्दर की बात है भाई
मुझे ज़मीं न मिली तुमको आसमान मिले

किसी ज़माने में उनके बहुत क़रीब थे हम
अभी तो फ़ासले ही सिर्फ़ दरमियान मिले

इसे भी बेचने आए थे लोग मंडी में
कहीं पे दीन मिला और कुछ ईमान मिले

मैं चढ़ के आ तो गया हूँ ऊँचाई पर लेकिन
मुझे भी ज़ीस्त में छोटी-सी इक ढलान मिले

क़बा के नाम पे चीथड़े थे जिस्म पर कल तक
बदन पे उसके कई रेशमों के थान मिले

मैं चल सका न बहुत दूर थक गया 'सालिक'
क़दम-क़दम पे मगर रोज़ इम्तिहान मिले

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सालिक गणवीर on July 27, 2020 at 7:58am

आदरणीय तेज वीर सिंह साहब

सादर अभिवादन

ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और सराहना के लिए हृदय तल से आभार.

Comment by TEJ VEER SINGH on July 26, 2020 at 7:39pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सालिक गणवीर  जी। बेहतरीन गज़ल।

ये अपने-अपने मुक़द्दर की बात है भाई
मुझे ज़मीं न मिली तुमको आसमान मिले

Comment by सालिक गणवीर on July 23, 2020 at 12:34pm

आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और सराहना के लिए ह्रदय से आभार.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 23, 2020 at 10:53am

आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

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