2122 2122 2122 2122
इश्क बनता जा रहा व्यापार पानी गिर रहा है
हुस्न रस्ते में खड़ा लाचार पानी गिर रहा है
चंद जुगनू पूँछ पर बत्ती लगाकर सूर्य को ही
बेहयाई से रहे ललकार पानी गिर रहा है
टाँगकर झोला फ़कीरी का लबादा ओढ़कर अब
हो रहा खैरात का व्यापार पानी गिर रहा है
बाप दादों की कमाई को सरे नीलाम कर वह
खुद को साबित कर रहा हुँशियार पानी गिर रहा है
झूठ के लश्कर बुलंदी की तरफ बढ़ने लगे हैं
साँच की होने लगी है हार पानी गिर रहा है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्री बृजेश कुमार 'ब्रज' जी रचना पर मूल्यवान टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल कही भाई यादव जी...रदीफ़ जबरजस्त है।एक दफ़ा सोचा इस रदीफ़ का क्या तुक है?लेकिन तुरंत समझ आया कि ग़ज़लकार ने अपनी सोच और तत्कालीन परिस्थिति को ढंग से बाँधा है।बधाई
आदरणीय श्री लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' बहुत बहुत धन्यवाद।
आदरणीय श्री अमीरुद्दीन 'अमीर' जी
हौसला अफजाई के लिए धन्यवाद। गलतियों से अवगत कराने के लिए नमन। उम्मीद करूँगा कि आगे भी मार्गदर्शन करते रहें।
आदरणीया Dimple Sharma जी बहुत बहुत धन्यवाद।
आ. भाई आशीष यादव जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब आशीष यादव जी आदाब, उम्दा ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
जनाब उर्दू अल्फा़ज़: इश्क़, ख़ैरात और ख़ुद पर नुक़्ते छूट गये हैं साथ ही 'हुँशियार' से चन्द्र बिन्दु हटा लीजियेगा। सादर।
आदरणीय आशीष यादव जी नमस्ते, बहुत ख़ूब वाह रदिफ़ कमाल ली है आदरणीय आपने खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
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