भारत वर्ष के इतिहास में नारियों की उपलब्धियों की जितनी बातें की जाये उतनी ही कम है| भारत के एक वीर नारी के बारे में पढ़ो तो दूसरी के बारे में अपने आप ही उत्सुकता जाग जाती है| उन महान योद्धाओं के व्यक्तित्व, साम्राज्य, युद्ध रणनीति और उनके कौशल को अधिक से अधिक जानने का मन करता है| वर्तमान में औरंगज़ेब लगभग समूचे उत्तर भारत को जीतने के पश्चात दक्षिण में अपने पैर जमा चुका था| अब उसकी इच्छा थी कि वह पश्चिमी भारत को भी जीतकर पूरे भारत पर मुग़ल साम्राज्य की विजय पताका फहरा दे| औरंगज़ेब ने अब तक लगभग संम्पूर्ण उत्तर-दक्षिण भारत पर अपना आधिपत्य कर दिया था| जब 1680 में छत्रपति शिवाजी ने मराठा साम्राज्य का साथ छोड़ स्वर्ग को प्रस्थान कर चले गए थे| इस खबर को सुनकर मुग़ल साम्राज्य का सम्राट औरंगज़ेब अत्यधिक प्रसन्न हुआ। शिवाजी की मृत्यु के बाद मुग़ल सम्राट ने सोचा की अब ये सबसे अच्छा मौका है दक्षिण पर अपना अधिकार ज़माने का और अब ये उनके लिए आसान भी हो गया है। यही सोचकर अब वह सम्पूर्ण भारत में विजय पताका फहराने के लिए पश्चिम भारत की ओर बढ़ रहा था| तभी एक वीरांगना उसकी सेना पर एक भूखी शेरनी की तरह टूट पड़ी| इससे पहले उस वीरांगना की वीरता व साहस के आगे औरंगज़ेब कुछ कर पाता उसने सब कुछ तहस-नहस कर दिया था| इस तरह औरंगजेब व उसके सैनिको को मैदान छोड़ कर भागने पर विवश होना पड़ा। मुगल सम्राट ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके सम्पूर्ण भारत को जीतने के सपने को तोड़ने वाला योद्धा कोई और नहीं, बल्कि एक स्त्री होगी| इस महान कार्य को अंजाम देने वाली महान वीरांगना का नाम था महारानी ताराबाई। महारानी ताराबाई कोई साधारण वंश की रानी नहीं थीं बल्कि मराठा साम्राज्य के महान राजा छत्रपति शिवाजी महाराज की पुत्रवधु थीं। ताराबाई के बारे में इतिहास की पुस्तकों में अधिक उल्लेख मिलता, परंतु वह एक अदम्य साहस की परिचारिका थी जिसका कोई मुक़ाबला नहीं था| हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि अगर महारानी ताराबाई नहीं होतीं तो मराठा साम्राज्य का इतिहास कुछ और ही होता|
महारानी ताराबाई का जन्म 14 अप्रैल, 1675 को छत्रपति शिवाजी महाराज के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते के घर हुआ था। बचपन में ही उसके वीरता के गुणों को देखकर महाराज शिवाजी ने उसे अपनी पुत्र वधू स्वीकार कर लिया था| इस तरह से 8 वर्ष की अल्पायु में ही ताराबाई का विवाह छत्रपति शिवाजी के बेटे छत्रपति राजाराम महाराज के साथ हो गया था। यह कठोर सच है कि शिवाजी की मृत्यु के उपरांत मराठा शक्ति का पतन होना शुरू हो गया था। जीवन रहते शिवाजी महाराज ने मुगल साम्राज्य और औरंगज़ेब को बहुत नुकसान पहुँचाया था| इसलिए औरंगज़ेब चिढ़कर उन्हें पहाड़ी चूहा कहकर बुलाता था| एक बार जब उन्हे बंदी बना लेता है तो शिवाजी महाराज बड़ी चतुराई से आगरा के किले से फलों की टोकरी में बैठकर भाग निकले जिसे औरंगज़ेब अपनी भीषण पराजय मानता था| वह शिवाजी महाराज द्वारा इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया| इसलिए शिवाजी की मौत के पश्चात उसने सोचा कि अब यह सही मौका है जब दक्षिण में अपना आधार बनाकर समूचे पश्चिम भारत पर साम्राज्य स्थापित कर लिया जाए| शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र संभाजी राजा बने और उन्होंने भी अपने पिता की तरह ही बीजापुर सहित मुगलों के अन्य ठिकानों पर हमले जारी रखे| सन 1682 में औरंगजेब ने दक्षिण में अपना ठिकाना बनाया, ताकि वहीं रहकर वह फ़ौज पर नियंत्रण रख सके| वहाँ से वह अपने सम्पूर्ण भारत पर साम्राज्य स्थापित करने के सपने को पूर्ण कर सकेगा| भविष्य के गर्त में क्या छिपा हुआ है उसे क्या पता था| कहा जाता है भी कि दक्षिण के फोड़े ने ही उसे मिट्टी में मिला दिया था| इस तरह पच्चीस वर्षो तक वह वहीं युद्धो में उलझा रहा और फिर कभी दिल्ली वापस नहीं लौट सका| सम्पूर्ण भारत पर फतह करने का उसका सपना उसकी मृत्यु के साथ वहीं दफ़न हो गया| दक्षिण भारत में औरंगजेब की शुरुआत तो अच्छी हुई थी और उसने 1686 और 1687 में बीजापुर तथा गोलकुण्डा पर अपना कब्ज़ा कर लिया था|
इसके बाद उसने अपनी सारी शक्ति मराठाओं के खिलाफ झोंक दी, जो उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए थे| मुगलों की भारी भरकम सेना की पूरी शक्ति के आगे धीरे-धीरे मराठों के हाथों से एक-एक करके किले निकलने लगे| मराठों ने ऊँचे किलों और घने जंगलों को अपना ठिकाना बनाना शुरू कर दिया था| औरंगजेब ने विपक्षी सेना में रिश्वत बाँटने का खेल शुरू कर दिया| रिश्वत के लालची, देशद्रोहियों व गद्दारों की वजह से वह संभाजी महाराज को संगमेश्वर के जंगलों के 1689 में पकड़ने में कामयाब हो गया| औरंगजेब ने संभाजी महाराज से जब इस्लाम कबूल करने को कहा तब संभाजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि वह अपनी बेटी की शादी उनसे करवा दे तो वह इस्लाम कबूल कर लेंगे| यह सुनकर औरंगजेब आगबबूला हो उठा, उसने संभाजी की जीभ काट दी और आँखें फोड़ दीं| कैद के समय में संभाजी महाराज को अत्यधिक यातनाएँ दी गईं, लेकिन उन्होंने अंत तक इस्लाम कबूल नहीं किया| उनकी दृढ़ता व साहस के आगे झुककर एक दिन क्रोध में औरंगजेब ने संभाजी की हत्या कर दी| संभाजी महाराज की राज्य नीतिनुसार संभाजी के बाद उनका दुधमुंहा बच्चा शिवाजी द्वितीय अब आधिकारिक रूप से मराठा राज्य का उत्तराधिकारी था| औरंगजेब ने इस बच्चे का अपहरण करके उसे अपने हरम में रखने का फैसला किया ताकि भविष्य में सौदेबाजी की जा सके| औरंगजेब शिवाजी नाम से ही चिढता था, इसलिए उसने इस बच्चे का नाम बदलकर शाहू रख दिया| उसने शाहु को अपनी पुत्री जीनतुन्निसा को सौंपते हुआ कहा कि वह उसका अच्छे पालन-पोषण करे| औरंगजेब यह सोचकर बेहद खुश था कि उसने लगभग मराठा साम्राज्य और उसके सबै उत्तराधिकारियों को खत्म कर दिया है| अब इसके बाद दक्षिण में उसकी विजय निश्चित ही है और जल्द ही उसका सपना भी पूरा हो जाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया|
महाराज संभाजी की मृत्यु और उनके पुत्र के अपहरण के बाद संभाजी का छोटा भाई राजाराम अर्थात ताराबाई के पति को मराठा साम्राज्य का शासक बना दिया गया| महाराज राजाराम ने महसूस किया अभी उनके पास सैन्य शक्ति भी नहीं है| इसलिए सबसे पहले यह जरूरी है कि अपनी शक्ति को संघटित किया जाये| इस क्षेत्र में रहकर मुगलों की इतनी बड़ी सेना से लगातार युद्ध करना संभव भी नहीं है| महाराज राजाराम ने अपने पितामह शिवाजी महाराज से प्रेरणा लेकर अपने विश्वस्त साथियों के साथ लिंगायत धार्मिक समूह का भेष बदला और गाते-बजाते आराम से सुदूर दक्षिण से निकलने में सफल हुए| लिंगायत धार्मिक समूह के लोग होने के कारण मुगल सेना ने उन्हें रोका भी नहीं| इसके बाद में जिंजी के किले में अपना डेरा डाल दिया| किले में रह कर महाराज राजा राम ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत किया| मौके का लाभ लेते हुए महाराज राजाराम ने जिंजी के किले से ही मुगलों के खिलाफ जमकर गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत कर दी| इससे मुगल सेना की रीढ़ टूट गई वह भोखला गई| धीरे-धीरे मुगल सेना में मराठों के गोरिल्ला युद्ध का भय बन गया| इस तरह से यह युद्ध पद्धति उनके लिए बहुत ही कारगार सिद्ध हुई| महाराज राजा राम ने अपने सबसे योग्य, वीर और धैर्यवान रामचंद्र नीलकंठ को अपनी सेना के सेनापति की कमान संभालने के लिए दी| राजाराम की सेना ने छिपकर वार करते हुए एक वर्ष के अंदर मुगलों की सेना के दस हजार सैनिक मार गिराए और उनका लाखों रूपए खर्च करा दिया| औरंगज़ेब बुरी उनकी गोरिल्ला पद्धति की वजह से बुरी तरह परेशान हो गया उसके समझ में नहीं आ रहा था कि मराठों के इस तरह एक युद्धो को कैसे रोका जाये| बदलते वक़्त के अनुसार दक्षिण से मिलने वाले उसे राजस्व में कमी आने लगी थी| एक समय तो ऐसा आया कि दक्षिण भारत की रियासतों से औरंगज़ेब को मिलने वाली राजस्व की रकम सिर्फ दस प्रतिशत ही रह गई थी| इस सबसे बड़ा कारण महाराज राजाराम की सफलता को देखते हुए दक्षिण की बहुत सी रियासतों ने उस गुरिल्ला युद्ध में राजाराम का साथ देने का फैसला कर लिया था| तंग व परेशान होकर एक दिन औरंगज़ेब के जनरल जुल्फिकार अली खान ने जिंजी के इस किले को चारों तरफ से घेर लिया था| किले के चारों ओर से घिरे होने के बावजूद भी पता नहीं कैसे और किस तरह के गुप्त मार्गों से महाराज राजाराम अपना गुरिल्ला युद्ध लगातार जारी रखे हुए थे| यह सिलसिला लगातार चलता रहा और चलते चलते लगभग आठ वर्ष बीत गए| आखिर में औरंगज़ेब का धैर्य जवाब दे गया और उसने जुल्फिकार को आदेश देते हुए कह दिया कि यदि उसने शीघ्र ही जिंजी के किले पर विजय हासिल नहीं की तो उसे इसके लिए गंभीर परिणाम भुगतने होंगे| अब जुल्फिकार के पास कोई चारा नहीं रह गया क्योंकि सम्राट की मात्र एक धमकी नहीं थी बल्कि उनका वचन था जो कभी भी उस पर कहर बन कर टूट सकता था| जुल्फिकर ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए अब नई योजना बनाकर किले तक पहुँचने वाले अन्न और पानी को रोक दिया| जब अपने सैनिकों व प्रजा की बुरी दशा नहीं नहीं देख पाये तब महाराज राजाराम ने जुल्फिकार से एक समझौता किया कि यदि वह उन्हें और उनके परिजनों को सुरक्षित जाने दे तो वे जिंजी का किला समर्पण कर देंगे| जुल्फिकर जानते थी महाराज राजाराम वचन के पक्के है इसलिए उनके अनुरोध के अनुसार जुल्फिकर ने ऐसा ही किया| महाराज राजाराम 1697 में अपने समस्त कुनबे और विश्वस्तों के साथ जिंजी किले को छोड़कर महाराष्ट्र चले गए और वहाँ उन्होंने सातारा को अपनी राजधानी बनाया| बीतते वक़्त के साथ मुगल सम्राट भी पता नहीं कब 82 वर्ष की आयु पार गया युद्धों में उलझे रहने के कारण उसे इसका पता ही नहीं चला| एक दिन अचानक की सन 1700 में उसे यह खबर मिली कि एक भयंकर बीमारी के कारण महाराज राजाराम की मृत्यु हो गई है| अब मराठाओं के पास राज्याभिषेक के नाम पर सिर्फ विधवाएँ और दो छोटे-छोटे बच्चे ही बचे थे| औरंगजेब प्रसन्न हो उठा कि चलो मराठा साम्राज्य समाप्त होने को है|
मुगल बादशाह औरंगजेब यह जानकार खुश था कि मराठा साम्राज्य में उसका मुक़ाबला करने के लिए कोई शक्तिशाली पुरुष नहीं है| इसलिए उसने अपना दक्षिण विजय का अभियान और तेज कर दिया| औरंगजेब की सोच के अनुसार उसके हाथ में दक्षिण को विजय करने का स्वर्ण अवसर था| जिसका लाभ लेकर वह वह शीघ्र से शीघ्र इसे निगल जाना चाहता था। जिससे उसका सम्पूर्ण भारत विजय में आने वाले इस मुख्य रोड़े से मुक्ति मिल सके| ऐसे में साम्राज्य के संरक्षण के लिए और हिंदवी स्वराज्य की उन्नति और विस्तार के लिए किसी ओजस्वी, वीर, और चतुर राजा-रानी की आवश्यकता थी। मराठों साम्राज्य की सभी परिस्थितियों का आंकलन कर व शत्रु की दूषित मंशा को जान गई| इसलिए महारानी ताराबाई ने अपने 4 वर्ष के पुत्र शिवाजी तृतीय का शीघ्रता में राज्याभिषेक कराया और स्वयं मराठा साम्राज्य की संरिक्षका बन राज करने लगी। जब ताराबाई ने मराठा साम्राज्य की कमान ली उस समय मराठा साम्राज्य को एक अच्छे नेतृत्व की आवश्यकता थी| सबसे पहले उन्होंने विरोधी सरदारों को अपने साथ में लिया और तितर-बितर हो चुकी अपनी सेना को संगठित किया| महारानी ताराबाई की नीतियों की वजह से मराठा शक्ति में विकास हुआ| जब महारानी ताराबाई को लगा कि अब उसकी सेना इतनी शक्तिशाली हो गई है कि मुगल शासक का सामना कर सकती| तब महारानी ने मुगल सेना के खिलाफ जंग छेड़ दी| औरंगजेब भी उसकी उसकी कौशल क्षमता को देखर दंग रह गया था कि अचानक ही कमजोर हो चुकी मराठा सैन्य शक्ति में इतना जोश व शक्ति का संचार कैसे हो गया| इस तरह जब मराठा साम्राज्य पश्चिमी भारत में लगातार कमज़ोर होता जा रहा था तथा औरंगजेब मराठाओं के किले-दर-किले पर अपना कब्ज़ा करता जा रहा था| उस समय ताराबाई मराठा साम्राज्य की डोर अपने हाथों में लेते हुए ना सिर्फ मराठा साम्राज्य को खण्ड-खण्ड होने से बचाया, बल्कि औरंगज़ेब को बड़ी शिकस्त देते हुए उसे हार मानने पर मजबूर कर दिया था|
महारानी ताराबाई ने सन 1700 से 1707 तक ताराबाई ने तत्कालीन सबसे शक्तिशाली बादशाह अर्थात औरंगजेब के खिलाफ अपना युद्ध जारी रखा| वह लगातार आक्रमण करतीं, अपनी सेना को उत्साहित करतीं और किले बदलती रहतीं| महारानी ताराबाई ने भी औरंगजेब की रिश्वत तकनीक अपना ली और विरोधी सेनाओं के कई गुप्त राज़ मालूम कर लिए| धीरे-धीरे महारानी ताराबाई ने अपनी सेना और जनता का विश्वास अर्जित कर लिया| मराठा साम्राज्य की संरक्षिका के रूप में उन्होंने मुग़लों को कई बार युद्ध में परास्त किया। औरंगज़ेब ने पन्हाला, विशालगढ़ और सिंहगढ़ पर आक्रमण कर उन पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। मराठा साम्राज्य कमज़ोर पड़ने लगा था, परंतु वीरांगना ताराबाई इन विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हुईं और मराठा सेना में जोश का भरती रहीं। ताराबाई के नेतृत्व में मराठा सैनिकों ने मुग़ल साम्राज्य के अधीन कई क्षेत्रों पर आक्रमण किया। 1703 में बरार, 1704 में सतारा और 1706 में गुजरात पर किए गए आक्रमणों में उन्हें अभूतपूर्व सफलता, धन तथा सम्मान प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त मराठा सैनिकों ने मुग़ल साम्राज्य वाले बुरहानपुर, सूरत और भरूच नगरों को भी लूटा। इस तरह एक बार फिर मराठे अपने सम्पूर्ण क्षेत्र को विजित करने में सफल रहे। ताराबाई ने दक्षिणी कर्नाटक में अपना राज्य स्थापित किया। महारानी के शासन में मराठों की शक्ति दोबारा से बढ़ने लगी थी| ताराबाई ने औरंगजेब को जिस रणनीति से सबसे अधिक चौंकाया और तकलीफ दी, वह थी गैर-मराठा क्षेत्रों में घुसपैठ| इसकी शिक्षा भी उसने औरंगजेब से ही ली थी| अब तक औरंगजेब अपनी इसी नीति के तहत मराठों शक्ति को क्षीण करता आ रहा था| मुगल सम्राट का इस समय सारा ध्यान दक्षिण और पश्चिमी घाटों पर लगा था| इसलिए मालवा और गुजरात में उसकी सेनाएँ कमज़ोर हो गई थीं| महारानी ताराबाई ने उसकी इस कमजोरी को भांप लिया था, इसलिए महारानी ताराबाई ने सूरत की तरफ से मुगलों के क्षेत्रों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया| इस तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए उन्होंने कई स्थानों पर अपनी वसूली चौकियां स्थापित कर लीं| महारानी ताराबाई ने इन सभी क्षेत्रों में अपने कमाण्डर स्थापित कर दिए और उन्हें सुभेदार, कमाविजदार, राहदार, चिटणीस जैसे विभिन्न पदानुक्रम में व्यवस्थित भी किया| मराठाओं को खत्म नहीं कर पाने की कसक लिए हुए सन 1707 में 89 की आयु में औरंगजेब की मृत्यु हुई| वह बुरी तरह टूट और थक चुका था, अंतिम समय पर उसने औरंगाबाद में अपना ठिकाना बनाने का फैसला किया, जहाँ उसकी मौत भी हुई और आखिर अंत तक वह दिल्ली नहीं लौट सका|
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगलों ने उसके द्वारा अपहृत किये हुए पुत्र शाहू को मुक्त कर दिया, ताकि सत्ता संघर्ष के बहाने मराठों में फूट डाली जा सके| इस तरह सन 1707 में शाहू अपने कुछ साथियों के साथ वापस महाराष्ट्र आ गया। यहाँ पर परसोजी भोंसले, भावी पेशवा बालाजी विश्वनाथ और नैमाजी सिंधिया ने उसका साथ दिया। महाराज शाहू ने महाराष्ट्र आकर अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकार मांगा। उसको शीघ्र पेशवा बालाजी विश्वनाथ के नेतृत्व में बहुत से समर्थक भी मिल गए। जब महारानी तारा बाई ने राज सिंहासन छोड़ना स्वीकार नहीं किया तब शाहू ने सतारा पर घेरा डाल कर वहाँ की तत्कालीन शासिका राजाराम की विधवा ताराबाई के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। जब मुगलों की इस योजना का व शाहू के युद्ध की चेतावनी का पता लगा तो महारानी ताराबाई ने शाहू को गद्दार घोषित करने की कोशिश करनी शुरू कर दी| ताराबाई ने विभिन्न स्थानों पर दरबार लगाकर जनता को संबोधित करते हुए कहा कि शाहू इतने वर्ष तक औरंगजेब की कैद में रहने और उसकी पुत्री द्वारा पाले जाने के कारण पूरी तरह मुस्लिम बन चुका है| मुगलों ने उसे मराठा साम्राज्य में फूट डालने के लिए भेजा है इसलिए वह किसी भी सूरत में मराठों का राजा बनने लायक नहीं है| रानी ताराबाई के इस दावे की पुष्टि करने के लिए जनता को बताया कि जब औरंगजेब की मृत्यु हुई तो शाहू उसे श्रद्धांजलि अर्पित करने नंगे पैरों उसकी कब्र पर गया था| परंतु महारानी ताराबाई के लाख प्रयास करने के बावजूद भी मराठों ने शाहू को अपना राजा स्वीकार कर लिया| वह अपनी योजनाओं में सफल होता गया| शाहू के सभी कार्यों में उन्हें मुग़ल सेनाओं का समर्थन भी मिलता रहा| इसी तरह अपनी जीत के अभियानो में विजय प्राप्त करते हुए उन्होने सन 1708 में उसने सातारा पर भी कब्ज़ा कर लिया| आखिरकार शाहू की शक्ति को बढ़ता देख महारानी ताराबाई को उन्हे राजा स्वीकार करना पड़ा| अब शाहू को हराना महारानी ताराबाई के मराठा सैनिकों के बस की बात नहीं रह गई थी| ताराबाई ने धनाजी जादव के नेतृत्व में एक सेना को शाहू का मुक़ाबला करने के लिए भेजा। अक्टूबर 1707 में महारानी व शाहू की सेना का आमना सामना हुआ जो भविष्य में खेडा युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ| एक कूटनीति का सहारा लेकर महाराज शाहू ने धनाजी जादव को अपनी तरफ मिला लिया। इसके बाद महारानी ताराबाई ने अपने सभी महत्त्वपूर्ण अधिकारियों के साथ पन्हाला में शरण ली। इस समय महारानी ताराबाई बड़ी विकट स्थिति में पड़ गईं। ताराबाई का पक्ष कमज़ोर पड़ गया| इस दौरान अच्छी बात यह रही कि वह अपने पुत्र शिवाजी तृतीय को सतारा में राज पद पर बनाये रखने में सफल रहीं। 1689 से 1707 ई. तक मराठों का यह स्वतंत्रता संग्राम चलता रहा। बाद में ताराबाई के पुत्र शिवाजी तृतीय को राजा शाहू ने गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
इतनी आसानी से महारानी ताराबाई हार मानने वालों में से नहीं थीं, उन्होंने अगले कुछ वर्ष के लिए अपने मराठा राज्य की नई राजधानी पन्हाला में स्थानांतरित कर दी| अगले पाँच-छह वर्ष शाहू और ताराबाई के बीच लगातार युद्ध चलते रहे| इन दोनों ने ही दक्षिण में मुगलों के किलों और उनके राजस्व वसूली को निशाना बनाया और चौथ वसूली की| आखिरकार महाराज शाहू भी महारानी ताराबाई से लड़ते-लड़ते थक गया| थक-हारकर उसने एक अत्यंत वीर योद्धा बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा अर्थात प्रधानमंत्री नियुक्त किया| बाजीराव पेशवा के नाम से मशहूर यह योद्धा युद्ध तकनीक और रणनीतियों का जबरदस्त ज्ञाता था| बाजीराव पेशवा ने कान्होजी आंग्रे के साथ मिलकर सन 1714 में ताराबाई को पराजित कर दिया| महारानी ताराबाई को कैद कर उसे उसके पुत्र सहित पन्हाला किले में ही नजरबन्द कर दिया, जहाँ ताराबाई और अगले 16 वर्ष कैद रही| सन 1730 तक ताराबाई पन्हाला में कैद रही, लेकिन इतने वर्षों के पश्चात शाहू जो कि अब छत्रपति शाहूजी महाराज कहलाते थे उन्होंने विवादों को खत्म करते हुए सभी को क्षमादान करने का निर्णय लिया ताकि परिवार को एकत्रित रखा जा सके| इसलिए महाराज संभाजी द्वितीय को कोल्हापुर में छोटी सी रियासत देकर उन्हें वहाँ शान्ति से रहने के लिए भेज दिया| महारानी तारा बाई ने भी इसे स्वीकार कर लिया| बालाजी विश्वनाथ उर्फ बाजीराव पेशवा प्रथम और द्वितीय की मदद से शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को समूचे उत्तर भारत तक फैलाया| सन 1748 में शाहूजी अत्यधिक बीमार पड़ गए उनकी बचने की उम्मीद भी दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही थी| इस समय तक महारानी भी ताराबाई 73 वर्ष की वृद्ध हो चुकी थीं| अब भी उन्हें अपने राष्ट्र के प्रति देशभक्ति होने के कारण उनके दिमाग में मराठा साम्राज्य की रक्षा के विचार घूम रहे थे| अगर दुर्भाग्य से शाहूजी महाराज को कुछ हो गया तो उसके बात क्या होगा? मराठा साम्राज्य का क्या होगा? क्या अब मराठा साम्राज्य का अंत नजदीक है? पता नहीं कैसे कैसे विचार मन में आ रहे थे| शाहू महाराज के बाद कौन? यह सवाल महारानी के ताराबाई के दिमाग में रह-रह घूम रहा था| वह पेशवाओं को अपना साम्राज्य इतनी आसानी से देना नहीं चाहती थीं|
तब ताराबाई ने एक फर्जी कहानी गढी और लोगों से बताया कि उसका एक पोता भी है| जिसे शाहूजी महाराज के डर से उसके बेटे ने एक गरीब ब्राह्मण परिवार में गोद दे दिया था, उसका नाम रामराजा है| वह 22 साल का हो चुका है, उसका राज्याभिषेक होना चाहिए| महारानी ताराबाई मजबूती से अपनी यह बात शाहूजी को मनवाने में सफल हो गईं| इस तरह 1750 में उस नकली राजकुमार रामराजा के बहाने ताराबाई दोबारा से मराठा साम्राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई| कहा जाता है कि महारानी तारा बाई ने रामराजा को कभी भी स्वतन्त्र रूप से काम नहीं करने दिया| वह सदैव परदे के पीछे से सत्ता के कार्यभार को अपने हाथों में थामे हुए थी| महारानी तारा बाई की अच्छी नीतियों व शक्तिशाली निर्णयों की वजह से मराठों का राज्य पंजाब की सीमा तक पहुँच चुका था| इतना बड़ा साम्राज्य संभालना महारानी ताराबाई और राजा रामराजा के बस की बात नहीं थी| महारानी तारा बाई व राजा रामराजा के सैनिक दल में गायकवाड़, भोसले, शिंदे, होलकर जैसे कई सेनापति थे, परन्तु इन सभी की वफादारी पेशवाओं के प्रति अधिक थी| इस कारण महारानी ताराबाई को राजा रामराजा के साथ मिलकर पेशवाओं से समझौता करना पड़ा| मराठा सेनापति, सूबेदार, और सैनिक सभी पेशवाओं के प्रति समर्पित थे इस कारण महारानी ताराबाई को सातारा को लेकर ही संतुष्ट होना पड़ा| इस तरह से मराठाओं की वास्तविक शक्ति पूना में पेशवाओं के पास केंद्रित हो गई| कहा जाता है कि महारानी ताराबाई सन 1761 तक जीवित रही| एक दिन जब उन्होंने सुना कि अब्दाली के हाथों पानीपत के युद्ध में लगभग दो लाख मराठे मारे गए| तब वह उस धक्के को वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और बीमार हो गई| इससे पता चलता है कि वह मराठा साम्राज्य के प्रति कितनी समर्पित थी| 14 जनवरी 1761 में पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की हार होने के बाद जून 1961 में ही महाराज की मृत्यु हो गई| इस तरह से महारानी ताराबाई पर दो तरफा पर वक़्त की मार पड़ी और दिसंबर 1761 में उनका भी निधन हो गया। वर्तमान समय में महारानी ताराबाई मराठा साम्राज्य की सबसे ताक़तवर महिला शासक-योद्धा सिद्ध हुईं। जिस तरह से उन्होंने लगातार बिना रुके कई वर्षो तक औरंगजेब जैसे वीर योद्धा से लड़ाई लड़ी वह उनके विशाल व्यक्तित्व को दर्शाता है। ख़फ़ी ख़ाँ जैसे कटु आलोचक ने उनके विषय में लिखा है “वह चतुर तथा बुद्धिमती स्त्री थी तथा दीवानी एवं फ़ौजी मामलों की अपनी जानकारी के लिए अपने पति के जीवनकाल में ही ख्याति प्राप्त कर चुकी थी”|’ 1700 से 1707 ई. तक के संकटकाल में ताराबाई ने मराठा राज्य की एकसूत्रता और अखण्डता बनाये रख कर उसकी अमूल्य सेवा की। इस तरह से महारानी तारा बाई ने अपने पूरे जीवनकाल में मराठा साम्राज्य का शिवाजी के राज्याभिषेक से लेकर सन 1700 में औरंगजेब के हाथों कमज़ोर किए जाने तथा उसके बाद पुनः जोरदार वापसी करते हुए सन 1760 में लगभग पूरे भारत पर मराठा साम्राज्य की पताका फहराते देखा| महारानी ताराबाई ने अपनी योग्यता, अदम्य उत्साह, नेतृत्व क्षमता एवं पराक्रम के कारण ही ताराबाई ने मराठा इतिहास के पन्नों पर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। भविष्य में महारानी ताराबाई के अदम्य साहस और निडर स्वभाव की वजह ही पुर्तगालियों ने उन्हें मराठाओं की रानी कहा है| धन्य है भारतवर्ष जहाँ इतनी महान रानियों ने जन्म लिया है|
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आपकी पुस्तक ज़रुर पढूँगा , मेरी हार्दिक बधाई ।
जनाब फूल सिंह जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
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