भारतीय इतिहास में रानी अहिल्याबाई का अपना ही इतिहास है जो दया, परोपकार, प्रेम और सेवा भाव की भावना से ओतप्रोत थी| रानी अहिल्याबाई एक ऐसी ही रानी थी जिसने रानी होते हुए भी खुद को कभी रानी नहीं माना बल्कि ईश्वर का एक प्रतिनिधि समझ कर ही अपने राज्य पर राज किया| जीवन रहते उन्हें इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ा लेकिन वह परिस्थितियों से घबराए बिना अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ती रही| वह युद्ध में विश्वास नहीं कर करती ना ही उन्हें खून-खराबा पसंद था लेकिन कभी कभी राज्य की भलाई के लिए उन्हें युद्ध करना पड़ा| जब उन्हें रानी का पद प्राप्त हुआ था| तब राज्य में लूट खसोट का शासन था| परंतु रानी ने उसका दमन अपनी कूटनीतिज्ञता से कर अपनी कुशल बुद्धि का परिचय दिया| रानी अहिल्याबाई जब अपने राज्य पर राज कर रही थी तो आस-पास के राज्यों में उनका आदर-सम्मान ही इतना था कि लोग आसानी से उनसे युद्ध करने की सोचते ही नहीं थे| इसी कारण उन्हें अपने जीवन में ज्यादा युद्धों का सामना नहीं करना पड़ा|
महारानी अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर के छौंड़ी ग्राम में हुआ| उनके पिता पाटिल मंकोजी राव शिंदे एवं माँ सुशीला बाई अपनी प्रतिभाशाली पुत्री को पाकर खुद को बहुत भाग्यशाली मानते थे| गाँव में पालन-पोषण होने के कारण उनके व्यवहार में सादगी और सरलता थी| वह बहुत सुंदर ना होकर भी आकर्षक लगती थी| अहिल्याबाई बचपन से ही बहुत ही धार्मिक व निष्कपट चरित्र की थी| इसलिए अक्सर शांत, अल्पभाषी और शिव भक्ति में खोई रहती थी| अहिल्याबाई के पिता मंकोजी राव शिंदे अपने गाँव के पाटिल थे, वह महिला शिक्षा के बहुत पक्षधर थे| वर्तमान समय में समाज का परिवेश ऐसा था कि नारियों को अधिकतर लोग पढ़ाना-लिखाना ही नहीं चाहते थे, ना ही इसे सही ही मानते थे| महिलाओं को आसानी से स्कूल जाने की भी अनुमति प्रदान नहीं की जाती थी| अहिल्याबाई को उनके पिता ने समाज की सोच के विपरीत अपनी पुत्री को शिक्षा ग्रहण करवाई उन्हें लिखने-पढ़ने के लायक बनाया| यह बात अलग थी कि अहिल्याबाई ने ज्यादातर शिक्षा अपने पिता से ही ग्रहण की। वह बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी थी तथा किसी भी विषय को बहुत जल्दी से याद कर समझ जाती थी| भविष्य में उन्होंने अपनी बुद्धि एवं विलक्षण प्रतिभा से सबको हैरान कर दिया था।
एक बार गाँव में जब अहिल्याबाई भूखों और गरीबों को खाना खिला रही थीं, तभी पुणे जा रहे मालवा राज्य के शासक मल्हारराव होलकर आराम के लिए छौंडी गांव में ठहरे| तब महाराज होलकर की नजर दया, उदारता से भरी अहिल्याबाई पर पड़ी। अहिल्याबाई की दया, करुणा व कर्तव्यनिष्ठा को देखकर महाराज मल्हार राव होलकर उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अहिल्याबाई के पिता मानकोजी शिंदे से अपने बेटे खांडेराव होलकरके साथ विवाह करने का प्रस्ताव रख दिया। खांडेराव सुंदर, वीर व एक अच्छे सिपाही थे, उन्होंने अपने पिता से सैन्य कौशल की शिक्षा ली थी| पिता मानकोज़ी शिंदे उनके प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं कर पाये और बालविवाह प्रथा के प्रचलन के कारण बहुत छोटी उम्र में ही उनका विवाह खांडेराव होलकर के साथ करवा दिया गया। इस तरह महारानी अहिल्याबाई खेलने-खाने की छोटी सी उम्र में ही मराठा राजघराने की बहु बन गईं। विवाह के कुछ वर्ष बाद अहिल्याबाई और खांडेराव होलकर को 1745 में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम मालेराव रखा गया| इसके तीन साल के बाद 1748 में उन्हें एक सुंदर पुत्री प्राप्त हुई जिसका नाम उन्होंने मुक्ताबाई रखा। परिवार में अपने पौत्र व पौत्री को देखकर राजा मल्हार राव बहुत खुश रहा करते थे|
समय-समय पर महाराज मल्हारराव अपनी पुत्रवधु अहिल्याबाई को भी राजकाज के सैन्य एवं प्रशासनिक मामलों की शिक्षा देने लगे| अहिल्याबाई की अद्भुत प्रतिभा को देखकर वे बेहद खुश होते थे। अहिल्याबाई अपने पति की राजकाज में मद्द करती थी साथ ही साथ उनके युद्ध एवं सैन्य कौशल को निखारने के लिए भी प्रोत्साहित भी किया करती था। महाराज अपने पुत्र से बहुत प्यार करते थे और उनकी पत्नी गौतमीबाई अहिल्याबाई की सेवा समर्पण से बहुत ही प्रसन्न रहा करती थी| अहिल्याबाई की जिंदगी सुख और शांति से कट रही थी, तभी उनके जीवन में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। कुंभेरी के इस युद्ध में एक तरफ सूबेदार मल्हार राव होलकर अपने पुत्र खण्डेराव के साथ खड़े थे तो दूसरी ओर सूरजमल जाट थे। मराठा एक करोड़ रुपए की चौथ वसूली पर अड़े हुए थे तो सूरजमल जाट चालीस लाख रुपए देना चाहते थे। इस युद्ध के परिणाम स्वरूप 1754 में खण्डेराव वीरगति को प्राप्त हो गए| अहिल्याबाई अपने पति से अत्याधिक प्रेम करती थी, इसलिए उन्होंने पति की मौत के बाद सती होने का फैसला लिया| पिता समान उनके श्वसुर मल्हारराव होलकर के बहुत समझाने और आग्रह करने पर उन्होंने अपना निर्णय बदल दिया| देखा जाये तो यह सही भी हुआ क्योंकि वृद्ध होने के कारण वह अपने पुत्र का निधन सहन नहीं कर पाये और गंभीर रूप से बीमार होने के कारण कुछ समय बाद उनके श्वसुर मल्हारराव होलकर भी 1765 में दुनियाँ छोड़कर चले गए| इससे अहिल्याबाई काफी आहत हुईं, लेकिन फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
इसके बाद मालवा प्रांत की बागडोर अहिल्याबाई के कुशल नेतृत्व में उनके पुत्र मालेराव होलकर ने संभाली। प्राचीन लेखकों के अनुसार वह बहुत ही चरित्रहीन, भोग विलास का आदि व दुष्ट प्रकृति का प्राणी था| जब उसकी माता निर्धन लोगों को वस्त्र आदि देती थी तो वह उनमे सर्प-बिच्छू व विषैले जानवर रख देता था| जब वह किसी को काटता था तो वह बहुत खुश होता था| रानी अहिल्याबाई उसकी इस हरकत को देख-देख कर बहुत दुखी होती थी| परंतु इकलौता पुत्र होने के कारण ममतावश कुछ कर नहीं पाती थी| शासन संभालने के नौ महीने बाद ही दैवीय प्रकोप के कारण वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया| वर्तमान के बड़े-बड़े वैध, नीम-हकीम से इलाज कराने के बाद भी राजकुमार नहीं बच पायेँ| एक दिन लाख कोशिश करने के बात भी अहिल्याबाई के पुत्र राजा मालेराव होलकर की भी मृत्यु हो गई। पति, जवान पुत्र और पिता समान ससुर को खोने के बाद अहिल्याबाई बुरी से तरह से टूट गई| सभी कठिनाईयों को झेलने के बाद भी वह अपने मार्ग से विचलित नहीं हुई और आगे बढ़ती गई| इसका प्रभाव उन्होंने अपनी प्रजा पर नहीं पड़ने दिया| ताश के पत्तों की तरह बिखरते अपने मालवा प्रांत को देखकर उन्होंने स्वयं वहां की रानी बनने का फैसला किया| इसके बाद 11 दिसंबर वर्ष 1767 में वे मालवा प्रांत की शासिका बनीं| उस समय गंगाधर यशवंत इंदौर का नेतृत्व कर रहा था| वह अव्वल दर्जे का छली व विश्वासघाती था| अहिल्याबाई का स्त्री होने के नाते राज्य के कई लोगों के साथ मिलकर उसने रानी का विरोध भी किया|
यशवंत अहिल्याबाई को गद्दी से उतार कर खुद शासक बनने के सपने संजोय बैठा था| रानी अहिल्याबाई उसकी इस तरकीब को जल्द ही समझ गई| यशवंत ने पेशवा के चाचा रघुनाथ राव को पूना से इंदौर पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया| इस कार्य में यशवंत ने उसे अपनी तरफ से पूरी सहायता देने का वचन दिया| रानी अहिल्याबाई को गुप्तचरों से इस आक्रमण की सूचना मिल गई| इसलिए रानी ने गायकवाड़, भोंसले और मराठा नरपतियों से अपने राज्य को बचाने के लिए सहायता मांगी| रानी की विषम परिस्थितियों को देखते हुए सभी ने उसकी मदद करने के लिए अपनी सेना की टुकड़ियाँ भेज दी| महारानी अहिल्याबाई ने मालवा प्रांत की शासिका बनने के बाद मल्हार राव के दत्तक पुत्र एवं सबसे भरोसेमंद सेनानी सूबेदार तुकोजीराव होलकर को अपना सैन्य कमांडर नियुक्त किया। अपने शासन के दौरान महारानी अहिल्याबाई ने कई बार युद्ध में अपनी प्रभावशाली रणनीति से सेना का कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया। उसके प्रभाव में अपने शासन के दौरान महारानी अहिल्याबाई ने कई बार युद्ध में अपनी प्रभावशाली रणनीति से सेना का कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया। इस तरह रानी अहिल्याबाई रघुनाथ के आक्रमण का सामना करने के लिए पूरी तरह से तैयारी हो गई| अहिल्याबाई ने अवसर का लाभ लेते हुए पेशवा माधवराव व उनकी धर्म पत्नी रमाबाई को भी अपनी स्थिति से अवगत कराते हुए एक भावपूर्ण पत्र लिखा था| जिससे उसे माधवराव का भी सहयोग प्राप्त हो गया| पुना के पेशवा रघुनाथ को पता चल गया की माधवराव के सहयोग और अन्य नरपतियों के सहयोग से अब इंदौर की शक्ति बहुत बढ़ गई| अब किसी भी सूरत में उनको हराना उसके लिए मुश्किल है| इसलिए वह पालकी में बैठकर तकोजीराव के साथ मिलकर अहिल्याबाई से भेंट करने महल पहुँच गया| रानी से भेंट करने के बाद युद्ध पर विराम लग गया| कुछ समय इंदौर में बिताने के बाद वह पुना वापस लौट गया| इस तरह महारानी अहिल्याबाई की अद्भुत शक्ति और पराक्रम को देखकर उनके राज्य की प्रजा उन पर भरोसा करने लगी।
जब महारानी अहिल्याबाई होलकर ने मालवा प्रांत की बाग़डोर संभाली थी| उस दौरान मालवा प्रांत में अशांति फैली हुई थी| राज्य में चोरी, लूट-पाट, हत्या व अपहरण आदि की घटनायें लगातार बढ़ रहीं थी| एक दिन इस स्थिति पर लगाम लगाने के लिए रानी ने सभा में एक ऐसे वीर का आह्वान किया जो इन सब पर विराम लगा सके| रानी अहिल्याबाई के आह्वान को सुनकर यशवंत राव ने अपनी स्वीकृति दी| रानी अहिल्याबाई के आदेशानुसार वह सेना की एक टुकड़ी ले इस अभियान पर निकल पड़ा| यशवंत राव ने कठोर दंड नीति का प्रावधान अपनाकर राज्य में हो रही सभी तरह चोरी-चकारी, लूटपाट, हत्या व अपहरण की घटनाओं पर विराम लगा दिया| रानी अहिल्याबाई ने उसकी इस सफलता से खुश होकर अपनी लाड़ली पुत्री मुक्ताबाई का विवाह उसके साथ कर दिया| इस तरह से महारानी राज्य में शांति एवं सुरक्षा की स्थापना करने में सफल हुई। जिसके बाद उनके राज में कला, व्यवसाय, शिक्षा आदि के क्षेत्र में काफी विकास भी हुआ। धीरे-धीरे महारानी अहिल्याबाई की उदारता, धैर्यता, वीरता और साहस के चर्चे पूरी दुनियाभर में होने लगे। कालांतर में मुक्ती बाई के गर्भ से एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ जिसका नाम नत्थोबा रखा गया इस नाती ने अहिल्याबाई के सभी पुराने घावों को भर दिया जिससे उन्हें जीवन में कुछ शांति प्राप्त हुई |
रानी अहिल्याबाई अपने पास बहुत ही कम सेना रखती थी| इसका एक कारण यह भी है कि आस-पड़ोस के राज्यों में उसके नाम का प्रभाव ही ऐसा था कोई उनसे युद्ध के बारे सोचता ही नहीं था| रानी अहिल्याबाई अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हमेंशा युद्ध के लिए तैयार रहती थी| युद्ध के दौरान रानी अहिल्याबाई हाथी पर सवार होकर दुश्मनों पर एक वीर शासिका की तरह तीरंदाजी करती थी। रानी अहिल्याबाई दूरदर्शी सोच रखने वाली शासिका थी| वह अपनी तेज बुद्धि के कारण देखते ही देखते अपने दुश्मनों के इरादों को भांप लेती थी। एक बार जब मराठा-पेशवा को अंग्रेजों के नापाक मंसूबों का पता नहीं चला| तब रानी अहिल्याबाई ने ही पेशवा को आगाह किया था कि अभी भी वक़्त है, संभल जायें। रानी अहिल्याबाई ने अपने राज्य के विस्तार व अपने राज्य के विकास को ध्यान में रखते हुए राज्य को व्यवस्थित कर उसे अलग-अलग तहसीलों और जिलों में बांट दिया| इसके साथ ही पंचायतों का काम व्यवस्थित कर, न्यायालयों की स्थापना की। इस तरह उनकी गणना एक आदर्श शासिका के रुप में होने लगी थी। एक बार उदयपुर के शासक चंद्रावत ने 1800 ई. में एक बड़ी सेना लेकर तकोज़ी पर आक्रमण कर दिया| सेनापति तकोजी ने वीरता का परिचय देते हुए शत्रु सेना को परास्त कर दिया| इस युद्ध का लाभ उठाने के लिए पुना के पेशवा रघुनाथ ने स्त्री का भेष बना, अपने पाँच सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़ा| जब रानी को रघुनाथ की इस घिनौनी हरकत का पता चला तो रानी भी अपनी सैन्य शक्ति के साथ युद्ध में कूद पड़ी| रानी ने रघुनाथ राव को ऐसी हार दी कि वह बुरी तरह से लज्जित होकर पूना लौट गया| पहली बार युद्ध में उसका किसी स्त्री से सामना हुआ, जिसे वह आज तक अबला ही समझता आया था| इसलिए उसे कभी भी नारी शक्ति का अहसास ही नहीं हुआ था| आज उसी अबला समझे जाने वाली नारी के हाथों से ही उसे इतनी बड़ी और बुरी हार का सामना करना पड़ा था| इस युद्ध के बाद आस पड़ोस में रानी अहिल्याबाई के साथ सेनापति तकोज़ी की भी धाक जम गई|
महारानी अहिल्याबाई होलकर भगवान शिव की परम भक्त थीं, उनकी भगवान शंकर में गहरी आस्था थी। अहिल्याबाई का मानना था कि धन, प्रजा ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है| जिसकी मैं मालिक नहीं बल्कि प्रजाहित में काम करने वाली एक जिम्मेदार संरक्षिका हूँ। राज्य उत्तराधिकारी ना होने की स्थिति में अहिल्याबाई को प्रजा ने दत्तक लेने का व स्वाभिमान पूर्वक जीने का अधिकार दिया। प्रजा के सुख-दुख की जानकारी वह स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रजा से मिलकर लेती तथा न्यायपूर्वक निर्णय देती थी। अहिल्याबाई के राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी व सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी। इसका असर यह था कि अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर इनके राज्य में आकर बसने की इच्छा स्वयं इनसे व्यक्त किया करते थे। अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनके विचार में प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है। महारानी अहिल्याबाई का मानना था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है। राजा को कभी भी प्रजा की धन का उपयोग अपने भोग विलास पर नहीं बल्कि प्रजा की भलाई के कार्यों में खर्च करना चाहिए| अपने राजकाल में अहिल्याबाई ने ऐसा ही किया| अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं, बल्कि एक छोटे भू-भाग पर उनका राज्य कायम था| अहिल्याबाई का कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था| इसके बावजूद जनकल्याण के लिए उन्होंने जो कुछ किया, वह आश्चर्यचकित करने वाला है, वह चिरस्मरणीय है।
अहिल्याबाई ने नारियों की एक सेना तैयार की| परंतु वह यह बात अच्छी तरह से जानती थीं कि पेशवा के आगे उनकी सेना कमजोर थी। रानी के गुप्तचरों से रानी को ज्ञात हो चुका था कि पेशवा भी उनके राज्य पर आंखे गड़ाए बैठा है| इसलिए उन्होंने कूटनीति का सहारा लेते हुए पेशवा को यह समाचार भेजा कि यदि वह स्त्री सेना से जीत हासिल भी कर लेंगे, तो उनकी कीर्ति और यश में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी| दुनियाँ यही कहेगी कि एक नारी की सेना से ही तो जीता हैं| अगर, आप नारियों की सेना से हार गये तो कितनी जग हंसाई होगी, आप इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। रानी अहिल्या बाई की यह बुद्धिमानी काम कर गई| पेशवा ने उनके राज्य पर आक्रमण करने का विचार बदल दिया। इसके बाद महारानी पर दत्तक पुत्र लेने का भी दबाव बढ़ने लगा| परंतु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे प्रजा को ही अपना सब कुछ मानती थीं। इस फैसले के बाद राजपूतों ने उनके खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया| रानी ने कुशलतापूर्वक उस विद्रोह का ही दमन कर दिया। अपनी कुशाग्र बुद्धि का प्रयोग करते हुए रानी अहिल्याबाई होलकरने मालवा के खजाने को फिर से भर दिया था। रानी अहिल्याबाई के जीवनकाल में ही इन्हें जनता देवी का अवतार समझने और कहने लगी थी। सच बात तो यह कि इससे पहले नारी का इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था। जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी, शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे, प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यंत हीन अवस्था में सिसक रहे थे। ऐसी परिस्थिति में उनका एकमात्र सहारा, धर्म-अंधविश्वासों रह गया था| इस कारण राज्य भय, त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था| उस समय राज्य में ना न्याय व्यवस्था में शक्ति थी, ना ही विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में रानी अहिल्याबाई ने जो कुछ किया वह प्रजा के लिए काफी था।
राज्य की सत्ता पर बैठने के पूर्व ही उन्होंने अपने पति–पुत्र सहित अपने सभी परिजनों को खो दिया था| इसके बाद भी प्रजा हितार्थ किये गए उनके जनकल्याण के कार्य प्रशंसनीय हैं। अहिल्याबाई ने विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया। शिव की भक्त अहिल्याबाई का सारा जीवन वैराग्य, कर्त्तव्य-पालन और परमार्थ ही उसकी साधना बन गया। रानी अहिल्याबाई धर्मांध नहीं थी| इसलिए मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा तोड़ कर बनाई मस्जिदों को बिना तोड़े ही उनके पास ही मंदिरों का निर्माण कराया| सोमनाथ व काशी के विश्वनाथ मंदिर उन्हीं के द्वारा बनवाएँ गए जो शिवभक्तों के द्वारा आज भी पूजा जाता है। शिवपूजन के बिना वह मुँह में पानी की एक बूंद नहीं जाने देती थी। सारा राज्य उन्होंने शंकर को अर्पित कर रखा था और आप उनकी सेविका बनकर शासन चलाती थी। ऐसा कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई के सपने में एक बार भगवान शिव आए थे| महारानी अहिल्याबाई की शिव भक्ति के बारे में यहां तक कहा जाता है कि, अहिल्याबाई राजाज्ञाओं पर दस्तखत करते समय अपना नाम कभी नहीं लिखती थी। अहिल्याबाई अपने नाम की बजाय श्री शंकर लिख देती थी। तब से लेकर स्वराज्य की प्राप्ति तक इंदौर में जितने भी राजाओं ने वहां की बागडोर संभाली सभी राजाज्ञाएं श्री शंकर के नाम पर जारी होती रहीं। अहिल्याबाई के समय में प्रचलित रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र तथा पैसों पर नंदी का चित्र अंकित होता था| कहा जाता है कि तब से लेकर भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति तक उनके बाद में जितने नरेश इंदौर के सिंहासन पर आये सबकी राजाज्ञाऐं जब तक श्रीशंकर के नाम से जारी नहीं होती, तब तक उसे राजाज्ञा नहीं मानी जाती थी, ना ही उस पर अमल होता था। मराठा प्रांत की रानी अहिल्याबाई महिला सशक्तिकरण की पक्षधर थीं| उन्होंने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए बहुत काम किए। महिला अहिल्याबाई होलकर ने विधवा महिलाओं को उनका हक दिलवाने के लिए कानून में बदलाव कर, विधवा महिलाओं को उनके पति की संपत्ति को हासिल करने का अधिकार दिलावाया| विधवा महिला को बेटे को गोद लेने का हकदार बनाया| एक विधवा होने के कारण वह विधवाओं के दुख को अच्छी तरह से जानती थी। रानी अहिल्याबाई के अंदर दया, परोपकार, निष्ठा की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी| इसलिए उन्हें दया की देवी एवं एक बेहतरीन समाज सेविका के तौर पर भी जाना जाता था।
नत्थोबा अहिल्याबाई होलकर का नाती, उस समय बहुत ही होनहार, सुशील, व वीर बालक था जो पूरे परिवार की खुशियों का सबसे बड़ा कारण भी था| वह बीस वर्ष की आयु में शीत ज्वर से बीमार हो गया और इसी बीमारी के तहत उसका निधन हो गया| पुत्र नत्थोबा की अचानक मृत्यु के कारण उसके पिता यशवंतराव इस गम को सहन नहीं कर पाये इसलिए कुछ दिनों बाद सन 1769 को वह भी मृत्यु की गोद में सो गए| पुत्री मुक्ताबाई अपना पुत्र व पति वियोग नहीं सहन कर पाई इसलिए अहिल्याबाई के लाख समझाने के बाद वह भी सती हो गई| इस तरह रानी अहिल्याबाई के जिंदा रहते-रहते उसका पूरा वंश ही खत्म हो गया| वह लगातार पूजा-पाठ करती रही| वह लगातार समाज की भलाई व निर्धनों की सेवा करते हुए अपने मन को शांति देने की कोशिश करती रही| परंतु जीवन में मिली विषम परिस्थितियों से वह अन्तर्मन में इतना टूट चुकी थी कि जीवन के अंतिम पड़ाव पर खुद को संभाल नहीं पाई| एक दिन हृदय के इस अकेलेपन ने साठ वर्ष की आयु में 13 अगस्त सन् 1795 ई. में मृत्यु ने उन्हें अपने आघोष में ले लिया| अंत समय में वह भगवान शिव का ध्यान करते हुए स्वर्गलोक जा बसी। अहिल्याबाई की महानता और सम्मान में भारत सरकार ने 25 अगस्त 1996 में एक डाक टिकट जारी किया। इंदौर के नागरिकों ने 1996 में उनके नाम से एक पुरस्कार स्थापित किया। असाधारण कर्तव्य के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। भारत के इतिहास में अहिल्याबाई का नाम बहुत आदरणीय है| आज भी लोग उन्हें एक देवी की तरह पूजते है और उन्हें बहुत मानते है|
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