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रोक लेते तुम अगर..

अपनी माटी गांव छोड़,हम
माया नगरी आए थे..
अम्मा बाबू और बच्चों के
सपने संग में लाए थे।

हाँफ रहे बेजान शहर मे
जीवन हमने डाला था..
अपने श्रम सीकर से इसको
हरा भरा कर डाला था।

टैम्पो रिक्शा खींचा हमने
उद्योगों के पहिये घुमाए थे
रहे सदा झोपड़ी मे हम
पर कितने महल बनाए थे।

समय का पहिया ऐसे घूमा
सारे पहिए जाम हुए...
तुम अपने थे,फिर यों कैसे
निष्ठुर बन अनजान हुए।

एक बार तो कहते हमसे
रूको यहाँ मत जाओ तुम
माना विपदा आन पड़ी है
इतना मत घबराओ तुम।

तुमने परदेशी कह हमको
सारे रिश्ते तोड़ लिए...
मरो वहीं जहां स्वजन तुम्हारे
कह कर के मुख मोड़ लिए।

हमने अपना धीरज खोया
इतना हमें डराया था...
दुर्दिन बीत सुदिन आता है
क्यों न हमें समझाया था।

घाव अभी तो गहरा है..
पर लौट के फिर हम आएंगे
फिर जीवन का मोल चुका
हम सपने सभी सजाएंगे।

मौलिक एवं अप्रकाशित।

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Comment by Dimple Sharma on September 2, 2020 at 4:10pm

आदरणीया शीला शर्मा जी नमस्ते, खुबसूरत रचना पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

Comment by आशीष यादव on August 25, 2020 at 11:31pm

बहुत अच्छी रचना हुई है। कहीं कहीं गेयता भंग हो रही है किंतु भाव बिल्कुल सच्चे हैं। बधाई स्वीकार कीजिए।

Comment by Samar kabeer on August 25, 2020 at 3:43pm

मुहतरमा शीला शर्मा जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

कुछ शब्दों में टंकण त्रुटियाँ देख लें ।

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