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यार जब लौट के दर पे मेरे आया होगा,
आख़िरी ज़ोर मुहब्बत ने लगाया होगा ।
याद कर कर के वो तोड़ी हुई क़समें अपनी,
आज अश्कों के समंदर में नहाया होगा ।
ज़िक्र जब मेरी ज़फ़ाओं का किया होगा कहीं,
ख़ुद को उस भीड़ में तन्हा ही तो पाया होगा ।
दर्द अपनी ही अना का भी सहा होगा बहुत,
फिर से जब दिल में नया बीज लगाया होगा ।
जब दिया आस का बुझने लगा होगा उसने,
फिर हवाओं को दुआओं से मनाया होगा ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय जनाब अमीरुद्दीन जी आदाब । आपकी मेरी इस ग़ज़ल पर आमद और अपना कीमती वक़्त इस नाचीज़ की कृति पर दिया और उस पर पसंदगी के लिए दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
ग़ज़ल पर आपके दिए सुझाव सच में प्रभावी ही प्रतीत होते हैं ।
आपकी मुहब्बतों के लिए एक बार फिर तहे दिल से शुक्रिया ।
सादर
आदरणीय जनाब हर्ष महाजन जी आदाब, वाह क्या पर्वाज़ है ग़ज़ल का हर एक शे'र ज़बरदस्त तख़य्युलात पेश करता है, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। मगर कुछ सुझाव भी पेश करना चाहता हूँ :
"लौटकर शख्स मेरे दर पे यूँ आया होगा, शख़्स पर नुक़्ता लगा लें।
आख़िरी जोर मुहब्बत ने दिखाया होगा" ज़ौर दिखाया नहीं लगाया जाता है, इसे यूँ कर सकते हैं :
ये करिश्मा तो मुहब्बत ने दिखाया होगा
"कस्में खाईं थीं बिछुड़ कर न कभी रोयेंगे, " क़समें खाईं थीं बिछड़ कर न कभी रोएँगे" (ज़बान के ऐतबार से सहीह)
आज अश्क़ों के समंदर में नहाया होगा ।"
"हर तरफ ज़िक्र वफ़ाओं का किया होगा जहाँ,
ख़ुद को अब भीड़ में तन्हा ही तो पाया होगा" मिसरों में रब्त कम है यूँ कर सकते हैं :
जब कभी ज़िक्र वफ़ाओं का चला होगा कहीं
ख़ुद को उस भीड़ में तन्हा ही तो पाया होगा
जब दिया आस का बुझता हुआ देखा उसने,
फिर हवाओं को दुआओं से मनाया होगा । यहांँ देखा (वर्तमान) के साथ होगा (भूतकाल) का सामंजस्य नहीं है
जब दिया आस का बुझने लगा होगा उसने ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं। सादर।
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