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धुआँ उठता नहीं कुछ जल रहा है
मुझे वो आग बन कर छल रहा है
पिछड़ जाउंँगा मैं ठहरा कहीं गर
ज़माना मुझसे आगे चल रहा है
बहुत ख़ुश था मैं तन्हाई में पर अब
ये सूनापन मुुझे क्यों खल रहा है
अंधेरे में उसे दिखता मैं कैसे
मगर फिर भी वो आँखें मल रहा है
बड़ा होकर दुखों में छाँव देगा
जो ये पौधा ख़ुशी का पल रहा है
निगल जाएगा मुझको भी अँधेरा
ये सूरज ज़िंदगी का ढल रहा है
पिघल जाएँगी चट्टानें दुखों की
हिमालय भी तो यारों गल रहा है
सुधारेगा उसे अब कौन यारो
वही जो उम्रभर अड़ियल रहा है
न था वो बज़्म में रौनक नहीं थी
वो है मौजूद तो क्यों खल रहा है
*मौलिक एवं अप्रकाशित.
Comment
मुहतरम जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, आपके ख़ुलूस और मुहब्बत का बहुत शुक्रिया। उस्ताद मुहतरम की इस्लाह वाक़ई बहतरीन है। मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है कि आप जैसे रौशन ज़मीर शख़्स ओ बी ओ की शान बढ़ा रहे हैं। सलामत रहें।
उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिये हृदयतल से आभार. क़ीमती इस्लाह के लिए मश्कूर-ओ-ममनून. सलामत रहें.
आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर' साहिब
ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफजाई के लिए तह-ए-दिल से ममनून हूँ. आपके सुझाव प्रशंसनीय हैं मगर उस्ताद-ए-मुहतरम की इस्लाह पर अमल नहीं करना ठीक नहीं होगा. आपने नाचीज़ की ग़ज़ल पर मश्क किया, उसके लिए शुक्रिय:
आदरणीय भाई बसंत कुमार शर्मा जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'धुआँ उठता नहीं कुछ जल रहा है
मुझे वो आग बन कर छल रहा है'
मतला और बहतर करने का प्रयास करें ।
'कभी तनहाइयों में शादमाँ था
ये सूनापन अभी क्यों खल रहा है'
इस शैर को यूँ कर सकते हैं:-
'बहुत ख़ुश था मैं तन्हाई में पर अब
ये सूना पन मुझे क्यों खल रहा है'
'बड़ा होकर दुखों की छाँव देगा
शजर नन्हा है दिल में पल रहा है'
इस शैर को उचित लगे तो यूँ कर लें:-
'बड़ा होकर दुखों में छाँव देगा
जो ये पौधा ख़ुशी का पल रहा है'
बाक़ी शुभ शुभ ।
आदरणीय सालिक गणवीर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ।
चन्द अश'आ़र में सुधार की गुंजाइश है अगर आप मुनासिब समझें तो :
"कभी तनहाइयाँ भी शादमाँ थीं कभी तन्हाइयों में भी थे ख़ुश हम
ये सूनापन अभी क्यों खल रहा है" अकेलापन ये अब क्यों खल रहा है
"अंधेरे में उसे दिखता मैं कैसे अँधेरा है नहीं वो देख पाया
मगर फिर भी वो आँखें मल रहा है" मगर ठहरो वो आँखें मल रहा है
"बड़ा होकर दुखों की छाँव देगा
शजर नन्हा है दिल में पल रहा है" अभी पौधा है दिल में पल रहा है क्योंकि नन्हा शजर नहीं कह सकते। सादर।
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