2122 - 2122 - 2122 - 21- 21
हादिसात ऐसे हुए हैं ज़िन्दगी में बार-बार
हर ख़ुशी हर मोड़ पर रोई तड़प कर ज़ार-ज़ार
दर्द ने अंँगडाईयाँ लेकर ज़बान-ए-तन्ज़ में यूँ
पूछा मेरी बेबसी से कौन तेरा ग़म-गुसार
अपनी-अपनी क़िस्मतें हैं अपना-अपना इंतिख़ाब
दिलपे कब होता किसी के है किसी को इख़्तियार
रफ़्ता-रफ़्ता जानिब-ए-दिल संग भी आने लगे अब
जिस जगह पर हम किया करते हैं तेरा इन्तिज़ार
मुस्कुराने की न मोहलत भी मिली मुझको 'अमीर'
लम्हा लम्हा बेक़रारी में रहा यूँ अश्कबार
"मौलिक व अप्रकाशित"
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हादिसात - हादसे का बहुवचन ज़बान-ए-तन्ज़ - व्यंंग्य की भाषा
ग़म-गुसार - हमदर्द इंतिख़ाब - चुुनाव इख़्तियार - नियंत्रण
संग - पत्थर बेक़रार-ओ-अश्कबार - व्याकुल एवं आंसुओं के साथ रोते हुए
Comment
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी सादर नमस्कार
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें
आदरणीया रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया, आपके सुझाव पर तामील कर दी गई है। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन'अमीर'जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें। आदरणीय , शायद मक़्त्ते का ऊला फिर से देखना होगा।
सादर
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