दोस्तो गर ज़िन्दगी में कामरानी चाहिए
ज़ह्न-ओ-दिल से गर्द नफ़रत की हटानी चाहिए
अर्ज़ कर दूँ आख़िरी ख़्वाहिश इजाज़त हो अगर
एक शब मुझको तुम्हारी मेज़बानी चाहिए
ज़िल्ल-ए-सुब्हानी अगर कुछ आपसे बच पाए तो
हम ग़रीबों को भी थोड़ी शादमानी चाहिए
मूँद कर आँखें न चलना याद रखना ये सबक़
ज़िन्दगी में हर क़दम पर सावधानी चाहिए
ज़िन्दगी में लाज़मी तो है मगर इंसान को
दफ़्न करने के लिये भी माल पानी चाहिए
फ़ज़्ल से रब के मुकम्मल हो गई मेरी ग़ज़ल
दोस्तो अब आपकी बस क़द्र दानी चाहिए
'नूर' साहिब ने लिखी ये ख़त में फ़रमाइश मुझे
हीरे मोती से जड़ी इक कूड़े दानी चाहिए
आज कल तो महफ़िलों में शाइरी के नाम पर
ऐ 'समर' ग़ज़लें नहीं बस नोहा ख़्वानी चाहिए
'समर कबीर'
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
बहुत शुक्रिय: प्रिय आज़ी तमाम,ख़ुश रहो ।
शुक्रिया इतनी खूबसूरत ग़ज़ल से रू ब रू कराने के लिए
सादर प्रणाम गुरु जी
इक इक शैर लाजवाब...........
जनाब नाहक़ साहब आपका बहुत बहुत शुक्रिय:
मुहतरमा वीणा गुप्ता जी आपका बहुत बहुत शुक्रिय:
खूबसूरत ग़ज़ल,कबीर जी बधाई
जनाब निलेश जी आपका बहुत बहुत शुक्रिय:
जनाब बृजेश जी आपका बहुत बहुत शुक्रिय:
जनाब अनीस जी आपका बहुत बहुत शुक्रिय:
जनाब तेजवीर सिंह जी आपका बहुत बहुत शुक्रिय:
जनाब रूपम कुमार जी आपका बहुत बहुत शुक्रिय:
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