2122-1212-22
1
आदमी कब ख़ुदा से डरता है
अपनी हर बात से मुकरता है
2
जब सर-ए-शाम ग़म सँवरता है
आइना टूटकर बिखरता है
3
आज का काम आज ख़त्म करें
वक़्त किसके लिए ठहरता है
4
ताबिश-ए-ख़्वाब के लिए दिलबर
रंग मेरे लहू से भरता है
5
शर्म की तोड़कर ही दीवारें
आदमी हद को पार करता है
6
है अजीब-ओ-गरीब अपना सफ़र
रोज़ मक़्तल प आ ठहरता है
7
जितनी तहज़ीब मैं दिखाता हूँ
उतना ही मुझ प वो बिफरता है
8
आँसुओं से ख़ुतूत लिख कर ही
संग-ए-दिल पर निशाँ उभरता है
9
ख़ूँ पसीने की रोज़ी रोटी से
नक़्श-वादी-ए-जाँ निखरता है
10
एक सन्नाटा आज भी 'निर्मल'
दिल के हर कोने में उतरता है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर सर्, आदाब। सर् हौसला अफ़ज़ाई के लिए तथा इस्लाह के लिए आपकी बेहद आभारी हूँ। सर् आपकी इस्लाह के अनुसार सुधार कर लेती हूँ। सादर।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले के सानी को ऊला और ऊला को सानी करना उचित होगा ।
'ताबिश-ए-ख़्वाब के लिए दिलबर'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'तेरी तस्वीर में मेरे दिलबर'
'ख़ूँ पसीने की रोज़ी रोटी से
नक़्श-वादी-ए-जाँ निखरता है'
ये शैर भर्ती का है ।
आदरणीय बृजेश कुमार "ब्रज जी ,हौसला बढ़ाने के लिए आपकी आभारी हूँ।
बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीया...बधाई
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