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नज़्म (कृषि बिल पर किसानों के शकूक-ओ-शुब्हात)

1222 - 1222 - 1222 - 1222 

ज़मीं होगी तुम्हारी पर फ़सल बेचेंगे यारों हम

मिलेगी तुमको राॅयल्टी न देंगे खेत यारों हम

जो बोएगा वही काटेगा ये बातें पुरानी हैं

फ़सल तय्यार करना तुम मगर काटेंगे यारों हम

ये जोड़ी अब तुम्हारी और हमारी ख़ूब चमकेगी

करो मज़दूरी तुम डटकर करें व्यापार यारों हम 

ज़मीं पर बस हमारी ही हुकूमत होगी अब प्यारो 

मईशत 'उनके' हाथों में न जाने देंगे यारों हम 

रखेंगे हम ज़ख़ीरा कर ज़मीं उगलेगी जो सोना

किसी का बस न कुछ होगा कि ख़ुद-मुख़्तार यारों हम 

''मौलिक व अप्रकाशित'' 

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Comment by Chetan Prakash on January 31, 2021 at 7:57pm

 'अमीर' साहब,  टंकण त्रुटि  हुई  है, मेरे कहे शेर  को कुछ  यूँ पढ़े "कि सोते हैं वो अफवाहों डराए हार है उनको / 

गिराकर जोश जनता ज़ह्न वो शातिर जताते हैं !

Comment by Chetan Prakash on January 31, 2021 at 11:19am

 आदाब , अमीर साहब ! क्षमा करें नज़्म एक तार्किक वि श्लेषण होना चाहिए, न कि अधारहीन वक्ततव्य । किसी विषय विशेष पर एक सारगर्भित सोच की अभिव्यक्ति नज़्म का प्राण तत्व होता है, मोहतरम अमीरुद्दीन अमीर साहब !

अगर मैं इस इस विषय पर ये कहूं , कि सोते हैं वो अफ़वाहों जगाए है उनको अभी

डर है, 

गिराकर जोश जनता ज़हन  वो शातिर जताते हैं ! साभार !

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 29, 2021 at 11:45pm

जनाब कृष मिश्रा 'जान' गोरखपुरी साहिब आदाब, इस रचना में क़ाफ़िया नहीं है, दरअस्ल ये नज़्म है, टाईटल में ग़लती से ग़ज़ल टाईप हो गया है जिसे एडिट कर दिया गया है। संज्ञान लेने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। सादर। 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on January 29, 2021 at 7:31pm

आ. अमीरुद्दीन सर , इस ग़ज़ल में काफिया क्या है मैं समझ नहीं पा रहा कृपया बताने का कष्ट करें।सादर।

कृपया ध्यान दे...

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