2212 - 1222 - 212 - 122
दामन बचा के हमने दिल पर उठाए ग़म भी
बेदाग़ हो गये हैं सब कुछ लुटा के हम भी
कुछ ख़्वाब थे हसीं कुछ अरमाँ थे प्यारे प्यारे
अहल-ए-वफ़ा से तालिब थे तो वफ़ा के हम भी
उस शख़्स-ए-बावफ़ा से सबने वफ़ा ही पाई
ये बात और है के हम को मिले हैं ग़म भी
गर्दिश में हूँ अगरचे रौशन है दिल की महफ़िल
लब ख़ुश्क़ हैं तो क्या है आँखे हैं मेरी नम भी
ज़ुल्फ़ों की छाँव मिलती पलकों का साया होता
होती जो अपनी क़िस्मत होते किसी के हम भी
हमने तबस्सुमों में ढाँपा था ग़म को अपने
पर्दे में रखके ग़म को ख़ुश थे बहुत ही हम भी
संग-ए-सितम तो मुझ पर फेंके थे उस ने ज़्यादा
गहरी है ज़र्ब-ए-दिल पर यूँ ज़ख़्म आए कम भी
क्या बस 'अमीर' कह दूँ क्या मेरी ज़िन्दगी अब
हैं फिर तलाश में ग़म दर्द-ओ-कसक अलम भी
''मौलिक व अप्रकाशित''
Comment
जनाब कृष मिश्रा 'जान' साहिब आदाब, मुहतरम ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
आ.अमीरुद्दीन सर बेहतरीन ग़ज़ल हुई दिली मुबारक स्वीकार करें आदरणीय।
ये दो शे'र खासे पसन्द आएं।
गर्दिश में हूँ अगरचे रौशन है दिल की महफ़िल
लब ख़ुश्क़ हैं तो क्या है आँखे हैं मेरी नम भी .....ग़ज़ब का तसव्वुर।
ज़ुल्फ़ों की छाँव मिलती पलकों का साया होता
होती जो अपनी क़िस्मत होते किसी के हम भी......आहहहह.. दिल छील गया ये शे'र।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया, जनाब मतले में अम की बंदिश के साथ हरेक शे'र में अम की बंदिश है।
ग़्+अम = ग़म, ह्+अम = हम, न्+अम = नम, क्+अम = कम, ल्+अम = लम। सादर।
जनाब लक्ष्मण धामी भाई 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी
आदाब
अच्छी ग़ज़ल कही है आपने ,मुबारकबाद क़ुबूल करें. मुहतरम आपके मतले में "ए अम भी "की बंदिश है मगर कुछ अशआर में नदारद है ,ऐसा क्यों ?
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