1222 - 1222 - 1222 - 1222
ज़मीं होगी तुम्हारी पर फ़सल बेचेंगे यारों हम
मिलेगी तुमको राॅयल्टी न देंगे खेत यारों हम
जो बोएगा वही काटेगा ये बातें पुरानी हैं
फ़सल तय्यार करना तुम मगर काटेंगे यारों हम
ये जोड़ी अब तुम्हारी और हमारी ख़ूब चमकेगी
करो मज़दूरी तुम डटकर करें व्यापार यारों हम
ज़मीं पर बस हमारी ही हुकूमत होगी अब प्यारो
मईशत 'उनके' हाथों में न जाने देंगे यारों हम
रखेंगे हम ज़ख़ीरा कर ज़मीं उगलेगी जो सोना
किसी का बस न कुछ होगा कि ख़ुद-मुख़्तार यारों हम
''मौलिक व अप्रकाशित''
Comment
जनाब डॉक्टर अरुण कुमार शास्त्री जी पुनः आगमन पर आपको धन्यवाद, आपकी प्रतिक्रिया ''आपने विपरीत ध्रुव के रूप में कटाक्ष शैली में संवाद किया है।'' के लिए विशेष धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। सादर।
जी आ. अमीदुद्दीन अमीर सर मुझे उस वख्त भी ऐसा आभास हुआ था कि टाइटल में गलती से "ग़ज़ल" टाइप हुआ है, आपकी गजलों के अनुरूप,ये नज़्म भी बेहतरीन लय लिए हुए, अपने संदर्भ को पूर्ण कर रही है। किसान आंदोलन की शंकाओं को आ. आपने बखूबी बयान किया है इस नज़्म के माध्यम से। खासकर जिस तरह से आपने विपरीत ध्रुव के रूप में कटाक्ष शैली में संवाद किया है वह और भी धार पैनी कर रहा है नज़्म की।
सादर।
//आदरणीय 'अमीर' साहब आप उक्त 'नज़्म के रचयिता है, किसी व्यक्ति अथवा समूह के प्रवक्ता नहीं है, सो उक्त 'नज़्म' आप की अभिव्यक्ति है और आप उसके प्रति जवाबदेह है!//
जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, अपने कृत्यों का का हर कोई जवाबदेह होता है, मैं किसी का भी प्रवक्ता नहीं हूँ और ये नज़्म मेरी स्वयं की अभिव्यक्ति हो ये ज़रूरी नहीं है, एक कवि या शाइर किन्हीं बाधाओं या सीमाओं से नहीं बंधा हो सकता यदि वह मर्यादा का पालन करे।
मेरा आपसे निवेदन है कि आप इस मंच की मूल भावना का सम्मान करते हुए प्रत्येक रचना पर साहित्यिक / तकनीकी गुण-दोष पर टिप्पणी करें न कि व्यक्तिगत राजनीतिक टिप्पणी। यदि आप मेरी इस रचना में कही गयी बातों से असहमत और असहज हैं तो किसी और मंच पर विरोध दर्ज करा सकते हैं। सादर।
डाॅ अरुण कुमार शास्त्री जी, आप का प्रतिवेदन मैंने तब भी पढ़ा और आज 'अमीर' साहब की हाँ में हाँ मिलाते हुए आप भी कुछ कहना लगे ! आप एक उच्च शिक्षित व्यक्ति हैं! किसी भी समूह का अपना संविधान होता है, नियमावली होती है! हाँ, लेकिन अन्ततः कोई भी समूह साहित्यिक हो अथवा राजनीतिक संविधान में प्रदत्त मूलाधिकारों से ऊपर नहीं है। और जो अपेक्षा आप, जनाब, इस नाचीज से कर रहे है, वो दायित्व किन्हीं और महानुभावों के पास है! सो, भाई में दूसरे लोगों के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकता ! आशा है, मेरी बात आप तक पहुँच गई होगी! इति !
नमस्कार, 'अमीर' साहब, मैंने अभी आपका मेरे टिप्पणीकार के जवाब मे आपका वक्तव्य पढा। आप वरिष्ठ नागरिक है, एक प्रजातांत्रिक देश के , सो आपसे ऐसे असंयत आचरण की अपेक्षा मुझे बिल्कुल भी नहीं थी । खैर , बेहतर होता आप मुद्दों पर बात करते, बजाय अनावश्यक इधर -उधर की बात करने के !
चलिए आपका काम मैं किए देता हूँ ! आदरणीय 'अमीर' साहब आप उक्त 'नज़्म के रचयिता है, किसी व्यक्ति अथवा समूह के प्रवक्ता नहीं है, सो उक्त 'नज़्म' आप की अभिव्यक्ति है और आप उसके प्रति जवाबदेह है!
मैंने जो कुछ अपने विवेक से कहा, मैं भी उसके लिए उत्तरदायित्व स्वीकार करता हूँ! अब आप दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करें ! 'उद्दण्डता' कौन कर रहा है, अपना मत जरूर अभिव्यक्त करें !
जनाब डॉक्टर अरुण कुमार शास्त्री जी आदाब, नज़्मपर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया, और इससे भी ज़्यादा नवाज़िश नज़्म को समझने और पसंद करने के लिए। सादर।
behad khoobsoorat line bn bdi hai aamir saahib
रखेंगे हम ज़ख़ीरा कर ज़मीं उगलेगी जो सोना
किसी का बस न कुछ होगा कि ख़ुद-मुख़्तार यारों हम
janaab ameerudeen amir sahib aapki nazam bahtreen umdaa lagi mujhe, khoob padan aaiyee
जनाब चेतन प्रकाश जी ko आदाब karte huye mujhe bhi inko salaam behjnaa hai ye jab likhte hain to ooper neeche daaye baaye kuch nhi dekhte agar inse tehjeeb ki gujarish kro to ye baukhlaa jaate hain maine 5 mrtbaa inse gujarish ki agar meri koi rachnaa behudaa hai to kripyaa theek jr dijiye tab se ye bahut khafaa hai n jaane kyu .. khuda jaane //
जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, आपसे सादर निवेदन है कि किसी भी रचना पर टिप्पणी करते हुए संयम और मर्यादा को लांघकर उद्दंडता का परिचय न दिया करें, किस वट-वृक्ष के नीचे तपस्या करने के उपरांत आप को इस दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई है कि 'नज़्म एक तार्किक वि श्लेषण होना चाहिए'?
आपने मुख्य संपादक महोदय के चेतावनी देने के बावजूद तार्किक एवं तकनीकी विश्लेषण करने के बजाय रचनाकार की संपूर्ण रचना को 'अधारहीन वक्ततव्य' क़रार देेकर
न केवल सृजन का उपहास किया है बल्कि अपनी मानसिक हताशा का भी परिचय दिया है, लगता है जैसे आपकी किसी दुखती रग को छेड़ दिया गया हो, यदि आप नज़्म के शीर्षक को ध्यान से पढ़ लेते तो आपको ये पीड़ा न होती (कृषि बिल पर किसानों के शकूक-ओ-शुब्हात) अर्थात कृषि बिल पर किसानों की शंकाएं' (जिन शंकाओं के वशीभूत किसान आंदोलित हैं) आशा है कि अब आप समझ गए होंगे। सादर।
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