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शायद नहीं. . . . . . . .

शायद नहीं. . . . . . . .
बोलते हैं
और बहुत बोलते हैं
जाने क्या-क्या बोलते हैं
मगर
क्या वही बोलते हैं
जो चाहते हैं बोलना
शायद नहीं
सिर्फ आवाज ही नहीं
बे-आवाज भी बोला जाता है
जब हम चुप हो जाते हैं
तब भी बोला जाता है
अपने आप से
और बेइंतहा बोलते हैं
वो बातें
जिनको हम आवाज न दे सके
क्या अपने आप से भी हम वही बोलते हैं
जो हम बोलना चाहते हैं
शायद नहीं
इन्सान
आदि से अन्त तक
बोलता ही रहता है
कभी आवाज से
कभी बे-आवाज
जब तक जीता है
उसकी धड़कनें, साँसें, स्वप्न
सब बोलते हैं
मगर क्या वही बोलते हैं
जो वो बोलना चाहते हैं
शायद नहीं
थक जाता है इन्सान
बोलते - बोलते जब
तो बोलती है
उसके पार्थिव शरीर की खामोश चुप्पी में कैद
उसकी बेबसी
उस कहने की
जो वो कह न सका
बोल - बोल कर भी
क्या कभी बोल पाएगा इन्सान
वो
जो वो वस्तुतः
बोलना चाहता है
निष्कपट बेबाक
शायद नहीं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on February 7, 2021 at 2:58pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब , सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on February 7, 2021 at 2:57pm

आदरणीय  अमीरुद्दीन 'अमीर'  जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on February 7, 2021 at 2:57pm

आदरणीय  Krish mishra 'jaan' gorakhpuri जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by Samar kabeer on January 31, 2021 at 2:37pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 29, 2021 at 11:53pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब, क्या ख़ूब कहा, वाह... बधाईयाँ । सादर। 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on January 29, 2021 at 7:37pm

इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आ. सुशील सरन जी।

एक सुझाव देना चाहता हूं, विराम चिन्हों का प्रयोग रचना को और मुखरित करेगा और स्पष्टता लाएगा। सादर।

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