२१२२/२१२२/२१२२
बेड़ियाँ टूटी हैं बोलो कब स्वयम् ही
मुक्ति को उठना पड़ेगा अब स्वयम् ही।१।
*
बाँधकर उत्साह पाँवों में चलो बस
पथ सहज होकर रहेंगे सब स्वयम् ही।२।
*
पहरूये ही सो गये हों जब चमन के
है जरूरत जागने की तब स्वयम् ही।३।
*
अब न आयेगा यहाँ अवतार हमको
करने होंगे मान लो करतब स्वयम् ही।४।
*
कल जो सेवक हैं कहा करते थे देखो
हो गये है आज वो साहब स्वयम् ही।५।
*
बोलना सच उन के सम्मुख व्यर्थ है यूँ
वो निकालेंगे विविध मतलब स्वयम् ही।६।
*
रैंगनें की जब रखोगे आप फितरत
तो मरोगे पाँव नीचे दब स्वयम् ही।७।
(१७-२-२१)
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई गुमनाम जी, सादर अभिवादन । लम्बे अंतराल के बाद गजल और मंच पर आपकी उपस्थिति से हर्ष हुआ । सराहना के लिए आभार ।
आ. भाई क्रिस मिश्रा जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
वाह शानदार ग़ज़ल हुई है बधाई।
अच्छी गजल हुई है आ. भैया हार्दिक बधाई।
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