२२१/२१२२/२२१/२१२२
वैसे तो उसके मन की बातें बहुत सरस हैं
पर काम इस चमन में फैला रहे तमस हैं।१।
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पहले भी थीं न अच्छी रावण के वंशजों की
अब राम के मुखौटे कैसी लिए हवस हैं।२।
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ये दौर कैसा आया मर मिट गये सहारे
चहुँदिश यहाँ जो दिखतीं टूटन भरी वयस हैं।३।
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पसरी जो आँगनों में उन से हवा लड़ेगी
इन से लड़ेंगे कैसे जो मन बसी उमस हैं।४।
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उस गाँव में हैं अब भी बेढब सुस्वाद वाले
इस आधुनिक नगर में रिश्ते हुए विरस हैं।५।
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पथ ढूँढता है हर पल भटका हुआ 'मुसाफिर'
रातें तमस भरी हैं उलझन भरे दिवस हैं।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई गुमनाम जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति , प्रशंसा और स्नेह के लिए आभार ।
वाह बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बधाई ......
आ. भाई क्रिस जी, अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए आभार।
बेहतरीन ग़ज़ल हुई आदरणीय भैया बहुत बहुत बधाई।
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