मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22
1
जो सह के ज़ुल्म हज़ारों भी उफ़ किया न करे
दुआ करो कि उसे ग़म कोई मिला न करे
2
मुझे बहार की रंगीनियाँ मिलें न मिलें
मगर ख़िज़ा ही रहे उम्र भर ख़ुदा न करे
3
मुझे वो बज़्म में चाहे मिले नहीं खुल कर
मगर मज़ाक में भी ग़ैर तो कहा न करे
4
मैं ज़र्द पत्ते सा घबरा के काँप जाता हूँ
कहे हवा से कोई तेज़ वो चला न करे
5
नशा किसी प महब्बत का यूँ भी होता है
फ़िराग सह के भी वो यार से गिला न करे
6
अगर हैं ख़ून में अय्यारियाँ,दग़ाबाज़ी
तो बात सिक़ दिली की भी वो किया न करे
सिक़- दिली, सत्यता,निष्कपटता
7
ख़ुदा से माँग ले 'निर्मल' उठा के हाथों को
किसी की आँख से आँसू कभी गिरा न करे
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीया रचना जी...हार्दिक बधाई
'तो बात सिद्क़ दिली की भी वो किया न करे'
ये मिसरा ठीक है ।
आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार।
सर् ग़ज़ल तक आने तथा इस्लाह देने के लिए आपकी आभारी हूँ।
सर् मतला सुधारने की कोशिश करती हूँ।
'मुझे बहार की रंगीनियाँ मिलें न मिलें
मगर ख़िज़ा ही रहे उम्र भर ख़ुदा न करे'
सर् इसका सानी ठीक करके दिखाती हूँ।
'फ़िराग सह के भी वो यार से गिला न करे'
सर् "फ़िराक़" लिखना था, टाइपिंग मिस्टेक हो गई है। अमीरुद्दीन'अमीर'जी के ध्यान दिलाने पर देखा,पर तब ठीक नहीं हो सकता था।क्षमा चाहती हूँ।
'तो बात सिक़ दिली की भी वो किया न करे'
आदरणीय सर् ,फिर रेख़्ता ने ग़लत शब्द बताया है मुझे।सहीह बताने के लिए आभार।
इस मिसरअ को क्या ऐसे कर सकते हैं
"तो बात सिद्क़ दिली की भी वो किया न करे"
सादर।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है, ग़ौर करें ।
'मुझे बहार की रंगीनियाँ मिलें न मिलें
मगर ख़िज़ा ही रहे उम्र भर ख़ुदा न करे'
सानी बहतर किया जा सकता है ।
'फ़िराग सह के भी वो यार से गिला न करे'
इस मिसरे में 'फ़िराग' का क्या अर्थ है?
दग़ाबाज़ी
'तो बात सिक़ दिली की भी वो किया न करे'
ये मिसरा बह्र में नहीं है,और 'सिक़ दिली' कोई शब्द नहीं होता यहाँ आप "सिद्क़ दिली" कहना चाहती हैं,यानी सच्चे दिल से ।
मुहतरमा रचना भाटिया जी, कहाँ बदलाव किए हैं आपने, मैं देख नहीं पा रहा हूँ। वैसे भी आप की रचना आप ही को फाइल करनी है, बाक़ी गुणीजनों के सुझाव भी आने दीजिए। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन'अमीर'जी नमस्कार। बारीकी से ग़ज़ल देखने के लिए आभार। बहुत अच्छे बदलाव आपने सुझाए हैं।एक बार सर् देखकर फाइनल कर दें बस..
सादर।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है मुबारकबाद पेश करता हूँ। चन्द मशविरे भी पेश करना चाहता हूँ,
'जो सह के ज़ुल्म हज़ारों भी उफ़ किया न करे'. मतले के ऊला का शिल्प सहीह नहीं है, इसे यूंँ कह सकते हैं -
'जो सह के ज़ुल्म हज़ारों भी बद् दुआ न करे'
दुआ करो कि उसे ग़म कोई मिला न करे
'मगर ख़िज़ा ही रहे उम्र भर ख़ुदा न करे' इस मिसरे में ख़िज़ा को ख़िज़ाँ कर लें।
'मुझे वो बज़्म में चाहे मिले नहीं खुल कर
मगर मज़ाक में भी ग़ैर तो कहा न करे' इस शे'र में थोड़ा बदलाव कर लें -
'किसी भी बज़्म में चाहे न दे तवज्जो मुझे
मगर मज़ाक में भी ग़ैर वो कहा न करे'
'मैं ज़र्द पत्ते सा घबरा के काँप जाता हूँ' इस मिसरे में 'पत्ते' को 'पत्ता' कर लें
'फ़िराग सह के भी वो यार से गिला न करे' इस मिसरे में 'फ़िराग' को 'फ़िराक़' कर लेंं।
'अगर हैं ख़ून में अय्यारियाँ,दग़ाबाज़ी' इस मिसरे में शुतरगुरबा दोष है 'अय्यारियाँ,दग़ाबाज़ी' ग़ौर फ़रमाएं।
बाक़ी शुभ शुभ। सादर।
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