122 122 122 122
पड़े जब कभी बेज़बानों के पत्थर
चटकने लगे फिर चटानों के पत्थर
मुहब्बत तेरी दास्तानों के पत्थर
उठा लाये फिर हम फ़सानों के पत्थर
बड़ी आग फेंकी बड़ा ज़हर थूका
उगलता रहा वो गुमानों के पत्थर
उठाये फिरा हूँ मैं कांधों पे जिनको
हैं सर पे सवार अब वे शानों के पत्थर
यहाँ दोस्ती, प्यार, नातों से बढ़कर
कई क़ीमती हैं ये खानों के पत्थर
है जिंदा अभी तक मुहब्बत का जज़्बा
सितमगर उठा फिर दहानों के पत्थर
मुझे याद है तेरी आँखों का जादू
मुझे याद हैं तेरे कानों के पत्थर
चिपकते रहें आदमी के लहू से
चमकते रहें हुक्मरानों के पत्थर
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत शुक्रिया आदरणीय मुसाफ़िर जी, जी बिल्कुल आदरणीय समर सर जी से ही ग़ज़ल की बारीकियां सीखी हैं, obo ने ही तुकबन्दी से ग़ज़ल कहना सिखाया है, समर सर का तो शिष्य है हम, उनकी टिप्पणी के बाद चिंता मुक्त हो जाता हूँ ग़ज़ल की खामियों की ओर से, सादर सादर प्रणाम आदरणीय समर सर
आ. भाई राहुल जी अच्छा प्रयास हुआ है । हार्ईदिक बधाई। समर जी की सलाह का अनुशरण करें । अंतिम शेर को बदल कर यूँ कर सकते हैं
न जाने धरा का यहाँ हाल क्या हो
गिरे जो कभी आसमानों के पत्थर
//वैसे एहसानों काफिया मैंने rekhta की काफिया संग्रह से लिया था जहां पर इसका 2122 दर्शाया गया, मैं भी 222 ही का ही उपयोग किया है पहले//
रेख़्ता पर अधिकतर जानकारियाँ ग़लत दी हुई हैं,उन पर भरोसा न किया करें ।
आख़री शैर हटाना ही उचित होगा ।
आखिरी शेर में आसमानों के पत्थर, को ग्रहों के लिए प्रयोग करने की कोशिश की है, ग्रहों का लगातर एक घर से दूसरे घर मे जाने के संदर्भ में, शायद अर्थ स्पष्ट नहीं पाया मुझसे
वैसे एहसानों काफिया मैंने rekhta की काफिया संग्रह से लिया था जहां पर इसका 2122 दर्शाया गया, मैं भी 222 ही का ही उपयोग किया है पहले, मार्ग दर्शन करे
आदरणीय कबीर जी
आदरणीय कबीर आपसे हम सब बहुत कुछ सीखते है, इसलिए आपकी टिप्पणी का इन्तजार रहता है, जो त्रुटियां हम नहीं देख पाते हम आपसे सीखते है,
बहुत बहुत आभार, आप हमे सिखाने में बहुत मेहनत करते हो
जनाब राहुल डांगी जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'मुझे फिर लगे आज तानों के पत्थर'
इस मिसरे में क़ाफ़िया दुरुस्त नहीं है क्योंकि सहीह शब्द है 'तअ'न:' और इसका बहुवचन होगा "तअ'नों" और आपने क़वाफ़ी 'आनों' के लिये हैं,देखियेगा ।
'वो बदले मेरे एहसानों के पत्थर'
इस मिसरे में भी क़ाफ़िया दुरुस्त नहीं है, क्योंकि सहीह शब्द है "अहसानों" 222 और आपने इसे 2122 पर ले रखा है,देखियेगा ।
'किसी दोस्ती, प्यार, नातों से ज़्यादा'
इस मिसरे में आपकी जानकारी के लिये बता रहा हूँ कि सहीह शब्द 'ज़ियादा' है, और इसे 22 पर लेना उचित नहीं होता,इसकी जगह "बढ़ कर" शब्द ले सकते हैं ।
'है जिंदा अभी तक मुहब्बत का ज़ज्बा'
इस मिसरे में 'ज़ज्बा' को "जज़्बा" कर लें ।
'उछाले बहुत आसमानों के पत्थर'
इस मिसरे में वाक्य विन्यास ग़लत हो रहा है,सहीह वाक्य होगा "आसमानों पे' ग़ौर करें ।
बाक़ी शुभ शुभ ।
मेरी गुज़ारिश है जनाब कबीर साहब इस ग़ज़ल पर मेरा मार्गदर्शन करे
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