2122 2122 2122 212
1
उनकी आँखों में उतर कर ख़ुद को देखा है कहाँ
हक़ अभी तक उनके दिल पर इतना अपना है कहाँ
2
आदतें यूँ तो मिलेंगी एक सी लोगों में पर
उनके दिल में एक सा एहसास होता है कहाँ
3
है लड़ाई ख़ुद से अपनी है बग़ावत ख़ुद ही से
बात इतनी सी ज़माना भी समझता है कहाँ
4
चारदीवारी में घर की साथ तो रहते हैं सब
ज़ाविया पर उनके दिल का एक जैसा है कहाँ
5
देख लिया गल कर पसीने में भी हमने रात दिन
बदले में मेहनत के पूरा पैसा मिलता है कहाँ
6
उसके दर पर माँगने से पहले इतना सोच लो
अपना फ़ुर्सत ए शौक़ तुमने यार रक्खा है कहाँ
7
उसके होटों का पियाला पी तो लूँ "निर्मल" मगर
प्यार इतना उसके दिल पर मुझको आता है कहाँ
मौलिक व अप्रकाशित
रचना निर्मल
Comment
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।
2122 - 2122 - 2122 - 212
'देख लिया गल कर पसीने में भी हमने रात दिन'
'अपना फ़ुर्सत ए शौक़ तुमने यार रक्खा है कहाँ' इन दोनों मिसरों की तक़्तीअ दोबारा कर के देखें। सादर।
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