2122 - 1122 - 112/22
(बह्र - रमल मुसद्दस मख़्बून मह्ज़ूफ़)
सर ये जिस दर न झुके दर है कहाँ
हर कहीं पर जो झुके सर है कहाँ
हौसलों से जो भरे ऊँची उड़ान
गिर के मरने का उसे डर है कहाँ
अम्न-ओ-इन्साफ़ जो राइज कर दे
आज के दौर का 'हैदर' है कहाँ
देखते हैं यूँ हिक़ारत से मुझे
हम कहाँ और ये अहक़र है कहाँ
यूँ अज़ीज़ों से किनाराकश हूँ
मुझसे पूछेंगे तेरा घर है कहाँ
फिर धड़कता हुआ महसूस मुझे
मैं न कहता था ये पत्थर है कहाँ
ये धड़कता भी है हस्सास भी है
दिल मेरा दिल है ये पत्थर है कहाँ
वो किराए का ही कमरा है 'अमीर'
उसका दिल ज़ाती मेरा घर है कहाँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
कठिन शब्दार्थ : राइज - रिवाजी, स्थापित established. 'हैदर' - हज़रत अली का लक़ब, a lion; a name of Hazrat Ali.
हिक़ारत - तुच्छता, हीनता का भाव, nullity, insignificancy. अहक़र - हीन, तुच्छ, insignificant.
अज़ीज़ - यार-दोस्त, सम्बन्धी, रिश्तेदार, प्यारा। किनाराकश - अलग-थलग, बे-ताल्लुक़, retiring.
हस्सास - महसूस करने वाला, जज़्बाती, अनुभवशील, sensitive. ज़ाती - निजी, व्यक्तिगत, personal.
Comment
बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीय...हार्दिक बधाई
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु आभार। सादर।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई ।
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