221 - 2121 - 1221 - 212
आईं हैं जब से रास ये तन्हाईयाँ हमें
अपनी ही अजनबी लगें परछाईयाँ हमें
ख़ल्वत के अँधेरों में था हासिल हमें सुकूँ
तड़पा रहीं हैं कितना ये रानाइयाँ हमें
देखा न जाता हमसे किसी को भी ग़मज़दा
भातीं नहीं किसी की भी रुस्वाईयाँ हमें
जिसको दिया सहारा उसी ने दग़ा किया
कितना सता रहीं हैं ये अच्छाईयाँ हमें
रानाइयों से दूर निकल आए हैं मगर
हर सम्त घेरती हैं वो परछाईयाँ हमें
हमने समंदरों को किया इश्क़ में उबूर
मिलने से कैसे रोकेंगीं ये खाईयाँ हमें
बेगानगी है चीज़ बड़े काम की 'अमीर'
करतीं ज़लील-ओ-ख़्वार शनासाईयाँ हमें
"मौलिक व अप्रकाशित"
शब्दार्थ - ख़ल्वत= loneliness, अकेलापन, तन्हाई
रानाइयाँ= चमक-दमक, रौनक़ें, सजीलापन, रंगीनियाँ
उबूर करना = पार करना, गुज़रना, क़ुदरत रखना, क़ाबू करना
बेगानगी = reserved, shyness, strangeness अंजाना-पन
ज़लील-ओ-ख़्वार होना = distressed; deserted
क़ाबिल-ए-नफ़रत-ओ-तहक़ीर, अपमानित, घृणित और तुच्छ होना
शनासाईयाँ = acquaintance, जान-पहचान, वाक़्फ़ियत,
Comment
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। सादर।
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
मुहतरम जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। जी, मक़्ते का सानी मिसरा तक़्तीअ के मुताबिक़ तो दुरुस्त है, मुझे तो लय में लग रहा है फिर भी आपने इंगित किया है तो मैं कुछ और सोचता हूँ। सादर।
अच्छी ग़ज़ल हुई, आदाब, 'अमीर' साहब! मकते का सानी मिसरा लय भंग करता दिख रहा है! गुज़ारिश है, इधर ध्यान फरमा हों!
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