2122 - 2122 - 2122 - 212
फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन-फ़ाइलुन
(बह्र- रमल मुसम्मन् महज़ूफ़)
मसनदों पर आज बैठे हो नहीं बैठोगे कल
फ़र्श पर आ जाओ वैसे भी यहीं बैठोगे कल
देना होगा पूरा-पूरा साहिबो तुमको हिसाब
रू-ब-रू नज़रें मिलाकर यूँ नहीं बैठोगे कल
आज तुम हो होगा कल हाकिम ज़माना देखना
जाग उट्ठा है बशर अब छुप कहीं बैठोगे कल
इल्म की इस शाख़ से गर उड़ चले हो आज तुम
हो जिहालत का अँधेरा जाँ वहीं बैठोगे कल
आज नीरो बन के जैसे कर दिया है ख़ाक सब
चैन की बंसी बजाकर यूँ नहीं बैठोगे कल
इल्म के जिस पेड़ को तुम काटने पर हो बज़िद
छाँव में इसकी बसेरा कर यहीं बैठोगे कल
हमने ही तुमको बिठाया था वहाँ आकाश में
फ़ैसला अब ये लिया है तुम नहीं बैठोगे कल
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया। सादर।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
कैसी बहस आदरणीय, आपसे तो शायद ही कोई बहस करना चाहेगा। मुझे तो मुआफ़ ही कर दें। सादर।
आदाब, जनाब, जब जवाब यही होना था तो मरहूम शाइर साहब को बेवज़ह बहस में लाये !
आपकी मनोहारी समीक्षा 'इसे क्या कहा जाय, कुछ समझ में नहीं आ रहा' के लिए आभार। सादर।
शुभ प्रभात, प्रस्तुत रचना ओ बी ओ के पटल पर हुई है, मुख्य सम्पादक महोदय ने
स्वीकृति दी है तो ज़ाहिर है, समीक्षा तो बनतीहै, प्रभु! मैंने वही किया है! लेकिन रचनकार, सर्जक होता है, सो उससेे बेहथर कौन जानता है, वह क्या कर रहा है?
जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, रचना बह्र में है और आपको इस लायक़ लगी कि इस पर अपनी हाज़िरी देने से आप ख़ुद को रोक नहीं सके, तो कुछ तो है इस रचना में, आप जैसे काव्य के प्रकाण्ड पंडित को कौन बता सकता है कि ये क्या है, ये तो आप ही बता सकते हैं महाराज!
जैसा कि जिगर मुरादाबादी ने भी कहा है -
"दिल रख दिया है सामने लाकर ख़ुलूस से - अब आगे इसके काम तुम्हारी नज़र का है" सादर।
आदाब! रचना, बह्र में है, परन्तु इसे क्या कहा जाय, कुछ समझ में नहीं आ रहा, अमीर साहब?! कृपया मार्ग-दर्शन करें!
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