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ग़ज़ल-इश्क़ महब्बत धोखा था

22 22 22 2


1

आँख खुली तो जाना था

इश्क़ मुहब्बत धोका था

2

उधड़ी सीवन रिश्तों की

चुपके से वो सिलता था

3

तुझसे मिलने से पहले मैं

जाने कैसे रहता था

4

झूठे सपनों की ख़ातिर 

मैं ख़ुद से ही हारा था

5

सूखा पत्ता कहता है

कल वो भी हरियाला था

6

जब भटकी रूह मेरी "निर्मल"

रोया दिल का कोना था

 

 

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Rachna Bhatia on September 15, 2021 at 8:41am

आदरणीय समर कबीर सर् नमस्कार। सर्

तुझसे मिलने से पहले मैं'

इस मिसरे में एक फ़ा अधिक है 'मैं', हटा दें ।

सर् शे'र में "मैं" की कमी लग रही थी। इसलिए पहले और मैं की मात्रा गिराने का सोचा था।पर,अब "मैं" हटा देती हूँ।

'कल वो भी हरियाला था'

इस मिसरे में 'हरियाला' की जगह दूसरा शब्द रखें ।

सर्  नहीं ठीक हो रहा।सादर।

6शे'र सर् इस तरह कर दूँ क्या

रूह भटकने पर "निर्मल"

सारा आलम रोया था

सादर

Comment by Samar kabeer on September 14, 2021 at 8:03pm

मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

'तुझसे मिलने से पहले मैं'

इस मिसरे में एक फ़ा अधिक है 'मैं', हटा दें ।

'कल वो भी हरियाला था'

इस मिसरे में 'हरियाला' की जगह दूसरा शब्द रखें ।

'जब भटकी रूह मेरी "निर्मल"

रोया दिल का कोना था'

इस शैर के ऊला में एक फ़ा अधिक है, सानी भी बदलें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 13, 2021 at 7:51pm

आ. बबीता बहन , सादर अभिवादन।सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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