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ग़ज़ल नूर की - तमन्नाओं को फिर रोका गया है

तमन्नाओं को फिर रोका गया है
बड़ी मुश्किल से समझौता हुआ है.
.
किसी का खेल है सदियों पुराना
किसी के वास्ते मंज़र नया है.
.
यही मौक़ा है प्यारे पार कर ले
ये दरिया बहते बहते थक चुका है.
.
यही हासिल हुआ है इक सफ़र से  
हमारे पाँव में जो आबला है.
.
कभी लगता है अपना बाप मुझ को  
ये दिल  इतना ज़ियादा टोकता है.
.
नहीं है अब वो ताक़त इस बदन में
अगरचे खून अब भी खौलता है.
.
हम अपनी आँखों से ख़ुद देख आए
वहाँ बस तीरगी का सिलसिला है.
.
बहुत सी लडकियाँ मरती हैं उस पर
वो लड़का, हाँ वही जो साँवला है.
.
ग़ज़ल में “नूर”! वो सब तू सुना दे
तेरे जीवन में जो कुछ अनकहा है.
  .
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on October 14, 2021 at 4:21pm

जनाब निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है, हरिक शे'र रवानी में है, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ।

मगर... मतले के दोनों मिसरों में ऐब-ए-तनाफ़ुर खटक रहा है।  सादर। 

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