समय का पहिया - लघुकथा -
सुशीला ने घर परिवार और समाज के विरोध के बावजूद एक राजपूत लड़के को अपना हमसफ़र बनाने का निर्णय किया। समूचा वैश्य समाज हतप्रभ था उसके इस फ़ैसले पर। लड़का राजपूत वह भी फ़ौज में अफ़सर। सारी बिरादरी लड़की के भाग्य को कोस रही थी। माँ ने तो रो रो कर घर आँसुओं से भर दिया था। उनकी एक ही चिंता थी कि एक बनिये की बेटी राजपूत परिवार में कैसे निभा पायेगी।
अंततः समाज ने लड़की का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। लड़के ने तो जैसे तैसे अपने घर वालों को राजी कर लिया क्योंकि लड़की एक डाक्टर थी। लेकिन अभी वह इस विवाद के चलते प्रैक्टिस नहीं कर रही थी।
होनी बड़ी बलवान होती है। उसको कौन टाल सकता है।शादी को अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए थे कि लड़का युद्ध में एक विमान हादसे में शहीद हो गया। लड़की की सासु माँ ने सारा दोष लड़की पर मढ़ दिया। यह अभागी है जो मेरे बेटे को खा गई। इसे अभी इसी वक्त घर से निकाल दो।
सुशीला का मन इन बातों से तार तार हो गया। उसे घर से निकाला जाए इससे पहले ही वह अपने थोड़े बहुत सामान के साथ निकल पड़ी।
माँ बाप को जैसे ही जानकारी मिली वे बेटी को लेने पहुँच गये।
"चल बेटी सुशीला, अपने घर चल। हम तुझे लेने आये हैं।”
"माँ , आप लोगों ने जब मेरा सामाजिक बहिष्कार किया था तभी मेरा बेटी होने का रिश्ता समाप्त हो गया था।”
"कैसी बात करती है? वह तेरा घर है।हम तेरा ब्याह अपनी बिरादरी में कर देंगे।”
"शादी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे पास मेरे प्यार की निशानी है। अब मैं अपना घर खुद बनाऊंगी।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय धामी जी।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। बहुत खूबसूरत लघुकथा हुई है । हार्दिक बधाई।
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब जी। आदाब।
हार्दिक आभार आदरणीय अमीरुददीन 'अमीर' साहब जी।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब, अच्छी लघुकथा हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी आदाब, अच्छी मार्मिक लघुकथा हुई है, बधाई स्वीकार करें। सादर।
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