ठण्ड कड़ाके की पड़े, सरसर चले समीर।
नित्य शिशिर में सूर्य का, चाहे ताप शरीर।१।
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दिखे शिशिर में जो नहीं, गजभर दूरी पार।
लगता धरती से हुआ, अम्बर एकाकार।२।
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धुन्ध लपेटे भोर तो, विरहन जैसी साँझ।
विधवा लगते वृक्ष हैं, धरती लगती बाँझ।३।
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घना कुहासा ढब घिरे, झरे हवा से नीर।
बदली जैसी भीत भी, धूप न पाये चीर।४।
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देती है हिम खण्ड सा, शीतलहर अहसास।
चन्दा जैसा दीखता, सूर्य क्षितिज के पास।५।
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हुए वृक्ष सब काँच से, हिम की ओढ़ दुशाल।
लेकर साथ अलाव को, सजे नित्य चौपाल।६।
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खड़खड़ कर देखो झरे, तरु से हर इक पात।
फैला उन से भर रही, गुमसुम धरती गात।७।
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ओढ़े लगते सब जरा, किन्तु सत्य विकराल।
अमृत तत्व वनस्पतियाँ, गहती हैं इस काल।८।
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धूप सेंकती तितलियाँ, कहती पंख पसार।
धरती नीरस मत रहो, ले लो रंग उधार।९।
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हुई गुनगुनी दो पहर, जब अलसाई धूप।
रुचिकर है अद्भुत भले, हुआ शिशिर का रूप।१०।
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हिम की चादर घाटियाँ, दसों दिशाओं तान।
कहती आओ सब करें, खूब शिशिर सम्मान।११।
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जेष्ठ अगर ऋतुराज है, सबसे शिशिर कनिष्ठ।
इसी लिए ऋतुचक्र में, इन की प्रीत धनिष्ठ।१२।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ. भाई आजी तमाम जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
वाह वाह वाह आ धामी सर बेहद खूबसूरत दोहे हुए बधाई स्वीकार करें
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