रोला छंद .....
मात्र नहीं संयोग ,जीव का सुख-दुख पाना ।
सीमित तन में श्वास,लौट के सब के जाना ।
भोर-साँझ आभास, जगत है झूठी आशा ।
आदि संग अवसान, ईश का अजब तमाशा ।
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समझो मन की बात, रात है सजनी छोटी ।
आ जाओ कुछ पास, प्रेम की सेकें रोटी ।
यौवन के दिन चार, न लौटे कभी जवानी ।
लिख डालें फिर आज,प्रेम की नई कहानी ।
सुशील सरना / 21-3-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुशील सरना जी,
रोला छंद पर सधे हाथ हुआ प्रयास श्लाघनीय है.
जय-जय
एक बात :
बात स्त्रीलिंग होने से समझो मन की बात शुद्ध चरण-पंक्ति होगी.
पुनश्च : हाँ रोला चौकड़ी है, द्वय नही, भूल सुधार कर रहा हूँ । पहले रोला का सम चरण पुन: देखें जिस में कारक कर्म के स्थान पर कदाचित अधिकरण हो गया है !
सुंदर भाव पूर्ण रोला द्वय छंद की रचना हुई है, सरना साहब !
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