होली मुक्तक (सरसी छंद )......
बार - बार पिचकारी ताने, मारे भर -भर रंग ।
भीगी मोरी अँगिया चोली , भीगे सारे अंग ।
मार शरम के मर-मर जाऊँ,लाल हो गए गाल -
बेदर्दी को लाज न आवे, छेड़े पी कर भंग ।
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जुल्मी कितना जुल्म करे है, देखो पी कर भंग ।
मदहोशी में रंग लगावे , खूब करे फिर तंग ।
अंग- अंग से छेड़ करे वो,तनिक न आवे लाज -
बार - बार वो रंग लगावे , खूब करे हुडदंग ।
सुशील सरना / 15-3-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
फागुनी मुक्तक अपनी तासीर में फड़कते हुए हैं, आदरणीय सुशील सरना जी. मेरी हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें.
मैं आपके छंदबद्ध रचनाओं से कितना अभिभूत रहता हूँ, इसे आप अवश्य समझते होंगे. आपने वस्तुत: सतत दीर्घकालीन अभ्यास किया है, जिसका प्रतिफल सबके समक्ष है.
बार-बार पिचकारी ताने (मोहे), मारे भर -भर रंग .., तथा,
मार शरम के मर-मर जाऊँ, लाल हो गए गाल
उपर्युक्त दोनों पदों पर आपका ध्यान चाहूँगा. आपको गेयता में स्पष्ट अंतर महसूस होगा.
इन मुक्तकों के लिए पुन: हार्दिक बधाई.
शुभातिशुभ
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। होली पर सुंदर छन्द हुए हैं । हार्दिक बधाई।
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