1
माँ गुरु थी पहली अपनी जिसका तप पावन ज्ञान लिखूँ
छाँव मिली जिस आँचल में उसको सब वेद पुरान लिखूँ
गर्भ पला जिसके तन में उसको अपना भगवान लिखूँ
मात सनेह समान यहाँ कुछ और नहीं उपमान लिखूँ
2
साजन जो परदेश गए करके मकरन्द विहीन कली
अश्रु गिरें दिन रात यहाँ बरसे जस सावन की बदली
बात रही दिल में जितनी दिल ने दिल से दिल में कह ली
हाल हुआ दिल का अपने जस नीर बिना तड़पे मछली
नाथ सोनांचली
विधान : भानस ×7 + गुरु
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 सौरभ पाण्डेय जी सादर प्रणाम
रचना पर आपकी उपस्थिति किसी पुरस्कार से कम नहीं।
हृदयतल से आभार प्रकट करता हूँ। सादर
वाह, हार्दिक बधाई स्वीकारें< आदरणीय नाथ सोनांचली जी.
आपके रचनाकर्म का उत्कर्ष दूसरे छन्द में ऊभर कर निखरा है.
शुभातिशुभ
आद0 चेतन प्रकाश जी सादर अभिवादन। हृदयतल से आभार आपका
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