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कल रात तेरे शहर से गुज़रे तमाम रात।
ख़्वाबों में हमने देखे वो रस्ते तमाम रात।
मायूसी औ थकन के सिवा कुछ नहीं मिला,
बोझिल सहर की आस में जागे तमाम रात।
जलती ज़मीं की प्यास बुझाने के वास्ते,
तारे फ़लक की गोद में रोये तमाम रात।
अब मिल रही है हमको सज़ा हर गुनाह की,
ख़त तुझको एक उम्र लिखे थे तमाम रात।
मैं शायरी को छोड़के भी खुश न रह सका,
मिसरे महीनों आँखों में तड़पे तमाम रात।
अपनी तमाम ख़्वाहिशों को छोड़कर सनम,
हम भी बेहिसी के दश्त में भटके तमाम रात।
सोचा बहुत मगर न कभी तुझसे कह सके,
हम तेरे गम में जाने जां रोये तमाम रात।
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मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई Zaif साहब
बहुत बहुत शुक्रिया
अहसास सर, कमाल ग़ज़ल कही, वाह।
आदरणीय समर कबीर साहब सादर प्रणाम ग़ज़ल पर महत्वपूर्ण इस्लाह देने के लिए आपका हार्दिक आभार आपकी इस्लाह से ही मेरी ग़ज़ल पूर्ण होती है यह आप जानते हैं कभी-कभी उलझन में रहता हूं इसलिए समय से जवाब नहीं दे पाता अपना बालक समझकर आप क्षमा कर देंगे ऐसी आशा है सादर
आदरणीय मुसाफिर साहब गजल पर प्रतिक्रिया देने हेतु हार्दिक आभार
आदरणीय अमीर साहब ग़ज़ल पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देने के लिए आपका हार्दिक आभार
सादर
जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करे I
'कल रात तेरे शहर से गुज़रे तमाम रात'-- इस मिसरे को यूँ कर लें :-
'हम यूँ तुम्हारे शह्र से गुज़रे तमाम रात'
'मायूसी औ थकन के सिवा कुछ नहीं मिला'--इस मिसरे में 'औ' को 'और' लिखें I
'ख़त तुझको एक उम्र लिखे थे तमाम रात'---इस मिसरे को यूँ कर लें :-
'ख़त तुझको एक उम्र जो लिक्खे तमाम रात'
आ. भाई मनोज जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
भाई अमीरूद्दीन जी की बातों का संज्ञान लें। सादर..
आदरणीय मनोज 'अहसास' जी आदाब, ख़ूबसूरत भाव पक्ष के साथ अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।
'कल रात तेरे शहर से गुज़रे तमाम रात'... मिसरे मेंं 'रात' शब्द का दोहराव खटक रहा है, इसके इलावा ऊला में 'तेरे' और सानी में 'हमने' होने से शुतरगुर्बा ऐब ज़ाहिर हो रहा है, ग़ौर फ़रमाएं। ऊला यूँ कर सकते हैं -
'कल हम तुम्हारे शह् र से गुज़रे तमाम रात'
'हम भी बेहिसी के दश्त में भटके तमाम रात'..... यहाँ 'भी' शायद टंकण त्रुटि के कारण आ गया है, देखियेेगा।
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