गज़ल
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वो जिसकी मैंने मदद की शरर पे बैठ गया
सितारा हो गया सबकी नज़र पे बैठ गया
गरीब जान के जिसकी कभी मदद की थी
वही ये शहर का बालक तो ज़र पै बैठ गया
वो बार-बार मुझे अपने घर बुलाता था
जो एक बार गया मैं तो दर पे बैठ गया
तुम्हारे जाने से पहले न कोई मुश्किल थी
लो फिर हुआ ये कि तूफाँ डगर पे बैठ गया
बदल गये हैं वो हालात ज़िन्दगी के अब
अगर कहूँ तो शनीचर ही सर पे बैठ गया
वो भूलकर सभी शर्मो लिहाज़ दूर हुआ
अलग बसा ली कही दुनिया डर पे बैठ गया
कभी किसी को सताओ नहीं सुना, 'चेतन'
कि फिर तुम्हीं तो कहोगे वो दर पे बैठ गया
मौलिक एवं अप्रकाशित
प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'
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