यह मन हो मानो घर तुम्हारा अपना
पार क्षितिज से जैसे कोई रहस्य-बिंबित
स्वरातीत गीत-सी याद तुम्हारी चली आई
थीं चाहे कितनी भी हम में अपूर्णताएँ अपार
विश्वास की आढ़ में था ठहरा सनातन प्यार
हर शनिवार की शाम वह हमारा मिलन
देखते ही मुझको तुम नव-वसंत-सी पल्लवित
उल्लसित, रोमांचित, क्या पा लेती थी उस पल ?
झेंप जाती, स्नेह छुपा न पातीं शर्माती मुंदी पलकें
हँस-हँस देते थे हम दोनो, हवा हो जाती थी हलकी
फिर क्यूँ वायु-मंडल को भेदती चली आती थी नक्षत्रों से
कभी किसी अभिशप्त दिन वह तुमको खो देने की चिंता
पीड़ा बन फड़फड़ाती थी रात, सारी रात, सुबह के होने तक
घायल पक्षी-सी टकराती रात, दीवार से दीवार कोने से कोने
और मैं साक्षी उसके क्रंदन का, देता भी उसको दिलासा कैसे
कितना दुखता था मन मेरे अकेले में, तुमसे कह न सका
हाँ, गलत था मैं कि कहा मैंने तुमको, "न उदास हो तुम"
गलत थी तुम भी कि कहा मुझको भूल जाने को तुमको
कि कभी करी हुई बातें उस अंतिम शनिवार की शाम की
भुलाने की परिधि में थी हीं कहाँ, वेदना स्वीकारने की थी
उस अंतिम शनिवार का शून्यत्व पेड़-पक्षी को पता था मानो
हाथ में मेरे था चाँदी का ताजमहल, तुम स्वीकार कर न सकी
"नहीं, नहीं, यह मैं न लूँगी, रुलाएगा यह मुद्दतों तक मुझको"
लौटा लाया वह चाँदी का ताजमहल, सुबकता रहा है मेरे संग
साल पर साल बीतते, चाँदी भी उसकी है अब काली हो चली
धुएँ की अंगारी परतों में धंसा, अब डरता है मेरा खंडित मन
आन्तरिक विरोध, बढ़ती दुविधा, या कभी असीम विशमता
और कभी सब शांत, अनुताप नहीं, आक्रोश नहीं, कुछ नहीं
मेरी मानसिक प्रष्ठभूमि भी है केवल साधारण असाधारणता
कभी आओ संयोगवश तो देख लेना वह " काला ताजमहल "
.... वह मेरा अंतिम प्रेम-पत्र
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। उत्तम रचना हुई है। हार्दिक बधाई।
प्रिय भाई समर कबीर जी:, मेरी रचना को मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार।
प्रिय मित्र सुशील सरना जी:, मेरी रचना को मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, हमेशा की तरह एक अच्छी रचना से मंच को नवाज़ा है आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I
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