दिशाविहीन
दयनीय दशा
दुख में वज़्न
दुख का वज़्न
व्यथित अनन्त प्रतीक्षा
उन्मूलित, उचटा-सा है मन
कि जैसे रिक्त हो चला जीवन
खाली लगती है सुबह
अनबूझे विषाद को उभारती
भूरे नभ से आती है साँझ
ढलता नहीं है अब
धड़ाम गिर जाता है
दूर कहीं पर क्षितिज में सूरज
पहर गिनते बीत जाती है भारी रात
घड़ी की सुइयों पर
अपना सिर टिकाय
पलट जाती है अन्यमनस्क
उच्छ्वास लेती एक और तारीख़
रह जाता है अवशेष केवल
एकाकीपन का गीलापन ...
बादल रिमझिम
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय सर, आपके सूक्ष्म अनुभवों का शाब्दिक होना गहरे डूब, अनहद की मद्धिम तरंगों का भान कराता है.
अव्याख्य एकाकी पीड़ा की दशा, बहुत कुछ छूट जाने के संताप, विभ्रम के ऊहापोह को जीता मन इस प्रकृति को ही उलाहना देता है. सारा संसार अपने वैशिष्ट्य के बावजूद शुष्क लगता है. ऐसे में खौलती निस्सारता को जिस उत्कटता से आपने प्रस्तुत किया है, कि प्रस्तुति सरस हो गयी है.
शब्दों की अक्षरियों पर तनिक ध्यान देना था, आदरणीय. वैसे, आपने सुझाव के अनुसार सुधार कर लिया है. अत: मैं आपकी अभिव्यक्ति पर संकेन्द्रित रहा.
सादर बधाइयाँ, आदरणीय.
मान्यवर चेतन प्रकाश जी। विषाद शब्द को सही कर दिया है, इंगित करने के लिए धन्यवाद।
ओ बी ओ सीखने-सिखाने का मंच है, यही उसका एक उच्च उद्देश्य है, यही उसकी महानता है। लगभग एक दशक से देखता आ रहा हूँ कि
सीखने-सिखाने के लिए इस मंच पर सदस्य एक दूसरे का हाथ पकड़ कर, समझा कर, आदर से एक दूसरे को आगे बढ़ाते हैं, प्रेरित करते हैं। यहाँ पर हम उत्साह बढ़ाते हैं, किसी को उत्साहहीन नहीं करते।स्वयं को ऊँचा दिखाने के लिए शब्दों से अनुचित शब्दों के पत्थर नहीं मारते।
आप विद्वान हैं, परन्तु अपनी विद्वता में रचे, अपनी गत उपाधियों में मंजे, आप मेरे प्रति तथा इस मंच पर कई बार अन्य माननीय सदस्यों के प्रति भी, आप शिष्टता को भूल रहे हैं। आप "औचित्य" की बात करते हैं, परन्तु मान्यवर औचित्य शिष्टता पर भी लागू होता है, ज़्यादा लागू होता है।
मुझको आपसे कोई विवाद नहीं करना, आपको कोई व्याख्या नहीं देनी, और यदि आप कुछ कहेंगे या लिखेंगे, तो उसका कोई उत्तर नहीं देना। आपकी नाम-रूप-उपाधि-रची विद्वता आपको मुबारक। आप दुश्चिंता देते हैं, मुझको आपसे दुश्चिंता नहीं लेनी।
काव्य मे औचित्य शब्द का उद्गम उचित शब्द से हुआ है:
उचितस्य भावम् औचित्य ' औचित्य का शाब्दिक अर्थ उचित का भाव है ! आचार्यों ने काव्य का आनंद , आदरणीय, 'औचित्य को ही माना है, सादर
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब ,हमेशा की तरह एक अच्छी रचना से नवाज़ा है आपने मंच को, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I
माननीय चेतन प्रकाश जी, सादर नमस्कार।
आपने मेरी इस रचना को समय दिया, अपने अमूल्य विचार दिए, इसके लिए मैं हृदयतल से आभारी हूँ। मुझको आप जैसे पाठक की ही ज़रूरत है, जो मुझको त्रुटियों का आभास दे सके, सही मार्ग बताए।
प्राय: ऐसा भी होता है कि जो भाव मन में हो, वह पन्ने पर नहीं उतरता, अत: मैं कोई भी रचना लिखने के बाद उसके शब्दों को, उनमें निहित भावों को देर तक, कभी कई घंटे, कभी कई दिन, उन पर सोचता ही रहता हूँ, परिवर्तन..और फिर और परिवर्तन करता रहता हूँ।
१. अन्यमनस्क शब्द को मैं सही कर रहा हूँ।
२. "व्यथित अनन्त प्रतीक्षा": इससे मेरा अभिप्राय था कि यह "कभी समाप्त न होती प्रतीक्षा" अनन्त है, परन्तु अनन्त होने के बावजूद अब थक-सी गई है... कुछ ऐसे कि जैसे प्रिय राज कपूर जी के चलचित्र "अंदाज़" में गीत के शब्द हैं.."रो-रो कि ग़म भी हारा"।
३. "उन्मूलित उचटा-सा मन" : शब्दकोश में उन्मूलित के दो मान्य दिए गए हैं...(अ) जड़ से उखड़ा हुआ, (ब) अस्तित्व समाप्त किया हुआ.... मैंने इस मान्य का प्रयोग किया है। रचना में इस शब्द से मेरा अभिप्राय है कि मन उचट गया है इतना कि जैसे यह अस्तित्वहीन हो गया है.. कि जैसे इसके लिए जीना या न जीना अब मान्य नहीं रखता।
४. "अनबूझे विशाद को उभारती" : अनबूझा विशाद... विशाद इतना कि अब उसकी कोई गणना नहीं की जा सकती, विशाद इतना कि जैसे दुख बहुत बढ़ जाने पर कहते हैं, "क्या खुशी क्या गम"।
चेतन प्रकाश जी, हृदयतल से पुन: आपका आभार।
नमस्कार, विजय निकोर जी, आपको वर्तनी पर काम करना होगा क्यों कि शब्द ही भाव का वाहक होता है, और उसके सम्यक प्रयोग के बिना अथवा अशुद्ध प्रयोग से भावार्थ का वहन कैसे हो पाए गा, बंधु ?
"व्यथित अनन्त प्रतीक्षा" से आपका अभिप्राय है, कम से कम मुझे समझ नहीं आया!
"उन्मूलित, उचटा सा मन" से भी कुछ समझ नहीं आया कदाचित आप बता सकें !
'अनबूझे विशाद को उभारती' भी मेरी समझ से परे है!
सही शब्द ' अन्यमनस्क' है, माननीय!
प्रिय समर कबीर जी, बृजेश कुमार जी और लक्ष्मण धामी जे। रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
वाह क्या कहने आदरणीय बहुतख़ूब...
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन। बहुत सुन्दर प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई।
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