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माँ-बाप को समझना कहाँ आसान होता है?
उनका साया हीं हम पर छत के समान होता है

प्रेम का बीज़ जिस दिन से माँ के पेट में पलता है
बाप के मस्तिष्क मे तब से हीं वो धीरे-धीरे बढ़ता है

पहले दिन से हीं बच्चा माँ के दूध पर पलता है
पर पिता के मेहनत से माँ के सिने में दूध पनपता है

सूने घर में कोई बालक जब किलकारी भरता है
उसके मधुर स्वर से हीं तो दोनों को बल मिलता है

पकड़ कर उंगली जीन हाथों ने चलना तुझको सिखाया
अपने हिस्से का बचा निवाला जिसने तुझको खिलाया

सुबह ना देखी रात ना जानी हर मौसम की मार सही
एक तेरी हीं हठ के कारण दोनों की चाह अधूरी रही

तेरी शिक्षा के खातिर उन्होनें जाने कितने कष्ट सहे
उम्र भर की पूंजी लुटाई बिना एक भी शब्द कहे

जब-जब तूने ठोकर खाई हिम्मत हार के बैठ गया
मात-पिता ने स्नेह से अपने डाला तुझमे जोश नया

बड़ा हुआ तू समझ ना पाया किसने तुझको बनाया है
किसने खून जलाया अपना किसने दूध पिलाया है

तू जीते जीवन में हरदम जो इस कारण सब हारे थे
आज उन्ही को तेरी आस थी जो कल तेरे सहारे थे

तू अपनी दुनिया में खोया कभी ना उनकी बात सुनी
अपनी मर्ज़ी से अपनी खातिर जो भी चाहा राह चुनी

जिससे तूने भरी सभा में अपरिचित सा व्यवहार किया
ये वही स्तम्भ है जिसने तेरा हर सपना साकार किया

आज जहां तू खड़ा हुआ है जो ऊंचाई पायी है
किसी ने अपना जीवन खपाकर तेरी सीढ़ी बनाई है

आज वो आँखें सुख चुके है जो तेरे दर्द में रोते थे
होंठ वो अब सुने रह गए जो चूमके तुझको सोते थे

तेरे जाने के बाद भी घर में छ: रोटी हीं पकती है
थाली पडोसे माँ तुम्हारी राह ताकती रहती है

जाने कब से चुप है पापा अब वो बात नहीं करते
तेरी किसी निशानी को अब अपने पास नहीं रखते

अब भी तेरे कमरे की होती रोज़ सफाई है
दीवारों में टंगी हैं अब भी जो चित्र तूने बनाई है

बस तेरी हीं यादों में अब दोनों खोए रहते हैं
पर दोनों हीं एक दूजे को दर्द ना अपना कहते हैं

तू भी जानेगा दर्द को इनके ऐसा भी एक दिन आएगा
बीच भँवर में साथ तुम्हारा जब छोड़ के बच्चा जाएगा


"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा

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Comment

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Comment by Zaif on November 8, 2022 at 4:55am

आदरणीय अमन जी, बेहद लाजवाब कविता। Hats off!

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