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दोहा मुक्तक. . . .

दर्द   भरी   हैं   लोरियाँ, भूखे    बीते    रैन।
दृगजल  से  रहते  भरे, निर्धन  के  दो  नैन ।
हुआ कटोरा भीख का, सिक्कों का मुहताज -
दूर तलक मिलता नहीं,अब निर्धन को  चैन ।
                     *****
आँसू  शोभित  गाल  का, कौन यहाँ हमदर्द ।
सूखे  होठों  पर  जमी , निर्धनता  की   गर्द ।
पैर पेट  से  मिल  गए, थर - थर  काँपे  देह -
जीण-क्षीण सा आवरण, लगे पवन भी सर्द ।

सुशील सरना / 22-1-23

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sushil Sarna on February 3, 2023 at 12:29pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2023 at 3:28pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुन्दर मुक्तक हुए हैं। हार्दिक बधाई।

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