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आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। गीत ने आपकी उपस्थिति से पूर्णता प्राप्त की। अपार स्नेह के लिए हार्दिक आभार।
आत्मा वाली पंक्ति में सुधार किया है कैसा हुआ है मार्गदर्शन करें।
"आत्मरूप में छिप करे, मन को किन्तु अधीर"
आपकी उपस्थिति का देर से संज्ञान लेने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ । सादर..
आ. भाई मिथिलेश जी सादर अभिवादन। गीत पर उपस्थिति, स्नेह और सुझाव के लिए हार्दिक आभार।
"पतझड़ को परदेश" आपकी सलाह उचित है। किन्तु यहा कहने का मन्तव्य दूसरा ही है। यहाँ पतझड़ को परदेश जाकर ऋतुराज को घर भेजने के लिए कहा जा रहा है। सादर..
पुनर्विचार निवेदित पंक्ति को इस प्रकार देखें - "आत्मरूप में छिप करे, मन को किन्तु अधीर"
आदरणीय लक्ष्मण धामीजी, क्या ही मनभावन गीत हुआ है ! वाह वाह
विशेषकर निम्नलिखित बन्द मुग्ध कर रहा है -
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीगे छन्द।
सूनी पड़ी कलाइयाँ, खिलखिल हँसी अमन्द।।
तितली भौंरें मस्त नित, पाकर यूँ मकरन्द।
पतझड़ बीता तो हुआ, चहुँदिश फिर आनन्द।।
क्षमा काम को कर रमे, कहते रमा उमेश।
एक बात
आत्मा जैसे शब्दों की वर्तनियों की मात्रा की गणना उर्दू के उच्चारण नितम के अनुसार न करें.
हिन्दी भाषा में मात्रा गणना आत्+मा होगी, न कि आ+त्+मा.
एक सुन्दर ऋतुगीत के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय लक्षमण धामी जी, बहुत बढ़िया गीत लिखा है आपने. हर बंद बहुत सुन्दर हुआ है. हार्दिक बधाई.
एक सलाह, अगर ठीक लगे तो मुखड़े को ऐसे कर सकते हैं-
घर भेजो ऋतुराज को,
पतझड़ को परदेश।
फागुन बनकर डाकिया, लाया यह संदेश।।
इसके अतिरिक्त - //मन मन छिपकर आत्मा, करने लगी अधीर।।// इस पंक्ति पर पुनः विचार निवेदित है. सादर
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