दोहा पंचक. . . ( क्रोध )
क्रोध मूल है बैर का, करे बुध्दि का नाश ।
काट सको तो काट दो ,क्रोध रास का पाश ।।
रिश्तों को पल में करे, खाक क्रोध की आग ।
जीवन भर मिटते नहीं, इन जख्मों के दाग ।।
क्रोध पनपता है वहाँ , होता जहाँ विरोध ।
हरदम चाहे आदमी , लेना बस प्रतिशोध ।।
घातक होते हैं बड़े, क्रोध जनित परिणाम ।
जीवित रहते शूल से, अंतस में संग्राम ।।
मित्र क्रोध से क्रोध का, मुश्किल है उपचार ।
क्रोध पृष्ठ पर है लिखा, अनचाहा संहार ।।
सुशील सरना / 21-7-23
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।
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