दोहा पंचक. . . . .
तर्पण को रहता सदा, तत्पर सारा वंश ।
दिये बुजुर्गो को कभी, कब मिटते हैं दंश ।।
तर्पण देने के लिए, उत्सुक है परिवार ।
बंटवारे के आज तक, बुझे नहीं अंगार ।।
लगा पुत्र के कक्ष में, मृतक पिता का चित्र ।
दम्भी सिर को झुका रहा, उसके आगे मित्र ।।
देह कभी संसार में, अमर न होती मित्र ।
महकें उसके कर्म ज्योँ , महके पावन इत्र ।।
तर्पण अर्पण कीजिए, सच्चे मन से यार ।
चला गया वो आपका, सच्चा था संसार ।।
सुशील सरना / 9-10-23
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