कहूं तो केवल कहूं मैं इतना कि कुछ तो परदा नशीन रखना।
कदम अना के हजार कुचले,
न आस रखते हैं आसमां की,
ज़मीन पे हैं कदम हमारे,
मगर खिसकने का डर सताए, पगों तले भी ज़मीन रखना।
उदास पल को उदास रखना,
छिपी तहों में खुशी दबी है,
न झूठी कोई तसल्ली लाना,
हो लाख कड़वी हकीकतें पर, न ख़्वाब कोई हसीन रखना।
दसों दिशाएं विलाप में हैं,
बिसात बातों की बिछ गई है,
बुनाई लफ्जों की हो रही है,
हमारे आधे में तय तुम्हारा रखा है आधा यकीन रखना।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया प्राची दीदी जी, आपको नज़्म पसंद आई, जानकर खुशी हुई। इस प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद। आभार। सादर
आदरणीय सौरभ सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है आ. मिथिलेश भाई जी
कल्पनाओं की तसल्लियों को नकारते हुए यथार्थ को बहुत खूबसूरती से अपनाने की अंतर्धारा पर सुंदर नज्म
आदरणीय मिथिलेश भाई, निवेदन का प्रस्तुत स्वर यथार्थ की चौखट पर नत है। परन्तु, अपनी अस्मिता को नकारता हुआ नहीं है।
विशेषकर प्रस्तुत शब्द-अभिव्यक्तियाँ अवश्य ध्यानाकृष्ट करती हैं -
कदम अना के हजार कुचले,
न आस रखते हैं आसमां की, .............. स्वीकार्यता का यह स्वरूप मनभावन है कि अपनी अना को जग जाहिर कर रहा है। ..
या,
उदास पल को उदास रखना,
छिपी तहों में खुशी दबी है, ...............हृदय की गहराइयों ंमें घुमड़ती हुई मद्धिम भाव-लहर को खूब समझा गया है
इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।
बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी हार्दिक धन्यवाद आपका।सादर।
आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।
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