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आँखों तक ही रूप का, होता है संसार
किंतु गुणों से आत्मा, पाती है झंकार।१।
*
रखने तन को छरहरा, देते भोजन त्याग।
कोई कहता हैं नहीं, लेकिन गुण से जाग।२।
*
गुण की चिंता है किसे, दिखता रहे गँवार
अब तो केवल रूप को, सब ही रहे सँवार।३।
*
जाना जिसने रूप से, गुण का गुण है खास
उस के जीवन से कभी, जाती नहीं उजास।४।
*
गुण है गुण गुणवान को, अवगुण गुण है दुष्ट
जिस को भाता जो रहा, करता उसको पुष्ट।५।
*
गुण से बढ़कर रूप का, जो करता गुणगान
करता गुण के साथ ही, रूपों का अपमान।६।
*
रूप रहित गुणवान को, मत समझो यूँ दीन
रूप अगर हो गुण रहित, बस होता है हीन।७।
*
स्वर्ण कलश विष से भरा, केवल रहे अछूत
घट माटी का ले सुधा, सब को रहे सपूत।८।
*
नर का धन जो गुण कहें, नारी का धन रूप
ऐसों को अब क्या कहें, जो खुद अंधा कूप।९।
*
पाया सुंदर रूप तो, गुण भी तनिक सँवार
तब जाकर सारा जगत, देगा मान अपार।१०।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by रामबली गुप्ता on Saturday

गुण विषय को रेखांकित करते सभी सुंदर सुगढ़ दोहे हुए हैं भाई जी।हार्दिक बधाई लीजिये।

ऐसों को अब क्या कहें, जो खुद अंधे कूप।।।   इस प्रकार ठीक कर लीजिए


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 14, 2024 at 10:46pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, बहुत खूब, बहुत खूब ! सार्थक दोहे हुए हैं, जिनका शाब्दिक विन्यास दोहों के उस काल का स्मरण करा रहा है जब दोहे नीतिपरक हुआ करते थे। 

आप भरपूर बधाई स्वीकार करें.. 

अलबत्ता, निम्नलिखित दोहे के दूसरे पद का अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा -  


स्वर्ण कलश विष से भरा, केवल रहे अछूत
घट माटी का ले सुधा, सब को रहे सपूत।

पुनः हार्दिक बधाइयाँ

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 17, 2024 at 9:56pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थित और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by Sushil Sarna on September 17, 2024 at 2:49pm

वाहहहहहह गुण पर केन्द्रित  उत्तम  दोहावली हुई है आदरणीय लक्ष्मण धामी जी । हार्दिक बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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