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ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं

.
सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं 
जहाँ मक़ाम है मेरा वहाँ नहीं हूँ मैं.
.
ये और बात कि कल जैसी मुझ में बात नहीं    
अगरचे आज भी सौदा गराँ नहीं हूँ मैं.
.
ख़ला की गूँज में मैं डूबता उभरता हूँ   
ख़मोशियों से बना हूँ ज़बां नहीं हूँ मैं.
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मु’आशरे के सिखाए हुए हैं सब आदाब  
किसी का अक्स हूँ ख़ुद का बयाँ नहीं हूँ मैं.
.
सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं?
.
परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं.
.
निलेश नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 16, 2025 at 10:34am

धन्यवाद आ. अजय गुप्ता जी 

Comment by Chetan Prakash on June 15, 2025 at 5:32pm
  1. आदरणीय 'नूर'साहब,  मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार ग़ज़ल का प्रत्येक शेर की विषय - वस्तु अलग होनी चाहिए जबकि उक्त रचना विशेष आत्मगत  है !
  2. क़ाफ़िया,  से मेरा अभिप्राय था। उक्त शेर में 'धुआँ' अशुद्ध है, यह मेरा निवदेन था,आदरणीय  !
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 14, 2025 at 9:26pm

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

Comment by अजय गुप्ता 'अजेय on June 14, 2025 at 7:53pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है नीलेश नूर भाई। बहुत बधाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 13, 2025 at 5:26pm

आ. चेतन प्रकाश जी.
मैं आपकी टिप्पणी को समझ पाने में असमर्थ हूँ.
मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में - इसे किस तरह समझा जाए..
आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है  ..इस पर थोड़ा प्रकाश डालेंगे तो कृपा होगी 
.
सादर 
  

Comment by Chetan Prakash on June 13, 2025 at 10:20am

आदाब,'नूर' साहब, सुन्दर  रचना है, मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में ! 

"परे हूँ जिस्म से अपने मैं 'नूर' हूँ शायद 

बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं" 

आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है !

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