ग़ज़ल :- हथेली पे कैक्टस उगाने से पहले
हथेली पे कैक्टस उगाने से पहले ,
ज़रा सोचना तिलमिलाने से पहले |
मोहब्बत से तौबा तो कब का किया है ,
संभलना भला चोट खाने से पहले |
सियासत के रंग में सभी रंग गए हैं ,
गले मिल रहे दिल मिलाने से पहले |
गिरेबाँ में अपने ज़रा झाँक लेना ,
किसी दोस्त को आज़माने से पहले |
वो अक्सर हवाओं के रुख़ देखता है ,
पतंगों से पेंचें लड़ाने से पहले |
घरों से सभी पिंजरों को हटा दो ,
परिंदों को दाना खिलाने से पहले |
नहीं जानना आसमाँ की ऊँचाई ,
मेरे पंख के फड़फड़ाने से पहले |
सलीके के दो चार मिसरे सुना दो ,
उन्हें तुम अलिफ़ बे पढ़ाने से पहले |
- अभिनव अरुण
Comment
सलीके के दो चार मिसरे सुना दो , उन्हें तुम अलिफ़ बे पढ़ाने से पहले |
सारी गजल ही बहुत अच्छी है, मुझे अपने साथ
एडमिन जी दिल की बात दिल में नहीं रखता इसीलिए कह दिया ! दरअसल ये सच है की मेरी तरह हर रचनाकार यही चाहता है की उसकी कवितायें पढ़ी जाए सापेक्ष निरपेक्ष समीक्षा हो | वर्ना घर की डायरी क्या बुरी है शौक मिटाने के लिए | साहित्य के बाज़ार में निकली हर कलम की अभिलाषा यही होती है की उसे जाना जाए उसकी एक पहचान हो | कम से कम मुझे इसे स्वीकारने में हिचक नहीं | हाँ ये ज़रूर है की इधर साहित्य समाज और मीडिया में हाशिये पर है | मुझे याद है मेरा लेखन बीस वर्षों पूर्व चम्पक, पराग ,बालहंस और दैनिक आज , सन्मार्ग आदि पत्र पत्रिकाओं के बच्चों के कालम से शुरू hua था प्रोत्साहन मिला और सिलसिला चल निकला | हां किसी अन्य क्षेत्र में न जा पाने और देर से अक्ल आने का मलाल भी होता है कभी कभी पर कहा है न की हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता ....
///सच पठनीयता का संकट इधर भी है उधर भी !
तीन दिन हुए मेरी ये ग़ज़ल यूं ही पड़ी है !//
सच अरुण जी, यही बात और भी सदस्य कहते है,
आप जैसे शुभेच्छुओं का स्नेह है सौरभ जी ! वरना ये अरुण मन का "अभिनव" न होता | वैसे मेरा हक़ बनता है बागी जी से .. आपसे .. तो कम से कम प्रोत्साहन के शब्द साधिकार मांग ही सकता हूँ !! पुनः प्रणाम और आभार आपने मेरी ग़ज़ल की तासीर बढ़ा दी !!
सबसे पहले तो इन सधी हुयी पंक्तियों पर मेरी शुभकामनाओं सहित बधाइयाँ स्वीकारें..
कैसे ग़ज़ल अभी तक आँखों से गुजरी नहीं.. अन्यथा प्रतीक्षा रहती है आपके लिखे की. मगर पोस्ट होने की तारीख देख कर कुछ-कुछ समझ में आया. ..
//हथेली पे कैक्टस उगाने से पहले ,
ज़रा सोचना तिलमिलाने से पहले |//
इस मतले से ही आपने समा बाँधा है. सही कहिये तो बहुत कुछ सुनाती हैं पंक्तियाँ.
//मोहब्बत से तौबा तो कब का किया है ,
संभलना भला चोट खाने से पहले |//
इस अशार ने बस तिलमिला कर रख दिया है..
//सियासत के रंग में सभी रंग गए हैं ,
गले मिल रहे दिल मिलाने से पहले |//
बहुत खूब.. और क्या कहा जाय इस अशार पर..?
//गिरेबाँ में अपने ज़रा झाँक लेना ,
किसी दोस्त को आज़माने से पहले |//
जो देखी मैंने छवि अपनी.. सबकी भूल गयी.. वाह..!
...
//सलीके के दो चार मिसरे सुना दो ,
उन्हें तुम अलिफ़ बे पढ़ाने से पहले |//
वाह-वाह.. बहुत खूब..भाई अरुण अभिनवजी.. ’ककहरा’ हो या ’अलिफ़-बे’ शुरुआत ही में जब जड़ टेढ़ी हो जाय तो फिर सारी इल्मी सजावट.. खुदा खैर करे.. .
बहुत-बहुत बधाइयाँ.. लख-लख बधाइयाँ .. .
नहीं जानना आसमाँ की ऊँचाई ,
मेरे पंख के फड़फड़ाने से पहले |
bahut sundar sir ji
सच पठनीयता का संकट इधर भी है उधर भी !
तीन दिन हुए मेरी ये ग़ज़ल यूं ही पड़ी है !
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