आसमान छूने की चाहत में
कितने दूर हो जाते हैं
हम ज़मीन से.
रिश्तों की दीवारें
ढह जाती हैं
स्वार्थों की चोट से,
चढ़ जाती है
स्नेह पर
गुरुत्व की परत,
चलते हैं
गडा कर नज़रें
आसमां पर
और कुचलते
स्वप्न और अरमान
अपनों के,
पैरों तले.
लेकिन पाते हैं एक दिन
अपने आप को अकेला
दूर क्षितिज पर,
तरसते
एक कोमल नन्हे हाथ को
जो पोंछ दे आंसू
अकेलेपन के.
Comment
कैलाश जी , इस रचना के मर्म को महसूस करना सबके बस की बात नहीं, ऐसे भाव भी अकस्मात् नहीं आते, बहुत ही सशक्त रचना बन पड़ी है, बहुत बहुत बधाई आपको |
बहुत बहुत शुक्रिया मोनिका जी, सौरभ जी और आशीष जी ...
आधुनिक जीवन की की यही सच्चाई हो गई है|
इस सच्चाई को आपने बखूबी लिखा है|
लेखनी को नमन है|
जिस ढंग, परिपाटी और साधन को आजका मानव सफलता-प्राप्त करने का पर्याय समझ बैठा है उस सफलता की प्राप्ति उस मानव को फिर किस तरह के असहाय एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त कर देती है, इस तथ्य को कवि ने उजागर करने का प्रयास किया है. कवि कैलाशजी को शुभकामनाओं सहित बधाइयाँ.
वाह बहुत खूब जीवन के सच को उजागर करती कविता
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