इतना बंदी मत करो मुझे अहसानों से,
कि आखिर को प्रतिदान नहीं मैं दे पाऊँ.
अहसान तेरे सदियों के कैसे याद रहें.
जलने दो जो जलती मुस्कानों की होली,
इतने आंसू मत गिरो, नहीं मैं चुन पाऊँ.
किस किस उपवन के अंचल को दोगी वसंत,
हर उपवन में पतझड़ का शाश्वत शासन है.
आकर्षित मुझको करो न दीपक से क्योंकि
शायद प्रकाश के बदले निशा न दे पाऊँ.
इस क्षणिक मिलन से अभिप्रेत है चिर वियोग,
इस चिर अभाव में चिर तृप्ति का साधन है.
रहने दो उर में आस अधूरी मिलने की,
अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.
इतना बंदी मत करो मुझे अहसानों से,
कि आखिर को प्रतिदान नहीं मैं दे पाऊँ.
Comment
आभार अरुण जी....
गणेश जी और सौरभ जी, रचना पसन्द करने और प्रोत्साहन के लिए आभार।
इस क्षणिक मिलन से अभिप्रेत है चिर वियोग,
इस चिर अभाव में चिर तृप्ति का साधन है.
रहने दो उर में आस अधूरी मिलने की,
अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.
वाह वाह, बहुत ही खुबसूरत रचना, कैलाश जी बधाई स्वीकार करे इस सारगर्भित अभिव्यक्ति पर |
//इस क्षणिक मिलन से अभिप्रेत है चिर वियोग,
इस चिर अभाव में चिर तृप्ति का साधन है.
रहने दो उर में आस अधूरी मिलने की,
अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.//
पंक्तियाँ सहज ही आकर्षित करती हैं.
इस भाव-प्रवण रचना पर बधाई.
शुक्रिया अरुण जी..
शुक्रिया आशीष जी..
रहने दो उर में आस अधूरी मिलने की,
अमरत्व मिलन के बाद न स्वीकृत कर पाऊँ.
सुन्दर रचना के लिए बधाई,
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