(1)
बड़े प्यार से जो दुलरावै|
हमको अपने गले लगावै|
प्रीति-रीति में हम हों बंदी|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि हिंदी!
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(2)
अलंकार से सज्जित सोहै|
रस की वृष्टि सदा मन मोहै |
मिल जाता है परमानन्द |
क्यों सखि साजन? नहिं सखि छंद |
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(3)
परम संतुलित जिसका भार|
गुरु लघु रूप बना आधार!
जन-जन को है जिसने मोहा|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि दोहा!
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(4)
मेल जोल जिसका है गहना|
जैसे लिखना वैसे पढ़ना|
पूरी होती जिससे आशा
क्यों सखि साजन? नहिं निज भाषा!
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(5)
दुनिया में जो प्रेम बढ़ावै|
जिसका साथ जिया हर्षावै|
राजनीति जिस पर हो गंदी|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि हिंदी!
--अम्बरीष श्रीवास्तव
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Comment
वाह वा
अम्बरीष जी,,
इस समय तो मुकरियों का बोलबाला है,,,,, आपने भी बहुत सुन्दर कह मुकरियाँ पढवाई, पढ़ कर मन आनंदित हो गया
जन-जन को है जिसने मोहा|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि दोहा!
वाह क्या बात है
बधाई व धन्यवाद
आदरणीय अम्बरीष भाईजी, आपने तो जैसे इस विधा की आत्मा से संग कर लिया है. एक शब्द में मैं इन मुकरियों पर अपनी भावना व्यक्त करूँ तो - अद्भुत ! आपकी पाँच की पाँचों कह-मुकरियाँ हम सभी के लिये प्रदर्शक की तरह हैं. किस बंद की तारीफ़ करूँ और किस पर क्या कहूँ ! क्या ही महीन तंतु से सारा कुछ बुना है आपने श्रीमान् ! वाह !
इस जबर्दस्त, सफल और मार्गदर्शक प्रयास के लिये आपको बहुत-बहुत बधाई.
आदरणीय अम्बरीश सर जी,
पांचो कह-मुकरियाँ हमारी भाषा हिंदी की बढ़ोत्तरी में बहुत कुछ योगदान दे रही हैं|
कह-मुकरियाँ ज्ञानवर्धक भी हैं|
आपकी लेखनी को नमन है|
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