मन का कसा जाना कसौटी पर मनस-उत्थान है
जो कुछ मिला है आज तक क्या है सुलभ बस होड़ से?
इस जिन्दगी की राह अद्भुत, प्रश्न हैं हर मोड़ से ||1||
अब नीतियाँ चाहे कहें जो, सच मगर है एक ही
जब तक न हो मन स्वच्छ-निर्मल, दिग्भ्रमित है मन वही
रंगीन जल है ’क्लेष’ मन का, ’काम’ भी जल पात्र का
जिससे सधे उद्विग्न मन वह ’संतुलन’ का ज्ञान है
भटकाव के प्रारूप दो ही, क्लिष्ट और अक्लिष्ट हैं
छूटे न यदि भटकन सहज ही, मानिये वे क्लिष्ट हैं
उन्नत तपस से शुद्ध हो मन, भक्ति है, उद्धार है
भव-मुक्ति है, आनन्द है, शुभ प्रेम का संसार है ||5||
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-- सौरभ
(ध्यातव्य : छंद की पंक्तियों के प्रयुक्त सभी कोमा वाक्यानुसार है नकि यति के लिहाज से. किन्तु, वाचन-क्रम में पंक्तियों में यति का आभास स्वयमेव हो जायेगा.)
Comment
आनंद की कोई सीमा नहीं होती,,,
आपके हरिगीतिका छंद को पढ़ कर कुछ ऐसा ही महसूस हुआ
इन पंक्तियों ने विशेष प्रभावित किया -
रंगीन जल है ’क्लेष’ मन का, ’काम’ भी जल पात्र का
परिशुद्ध जल से पात्र भरना कर्म हो जन मात्र का
उन्नत तपस से शुद्ध हो मन, भक्ति है, उद्धार है
भव-मुक्ति है, आनन्द है, शुभ प्रेम का संसार है
धन्यवाद सियाजी. आपसे संसुस्ति पा कर मन उत्साहित है. मेरे प्रयास को मान देने के लिये बहुत-बहुत शुक्रिया.
behad umda ,behtareen panktiya ...
जिससे सधे उद्विग्न मन वह ’संतुलन’ का ज्ञान है
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