ऐ खुदा तुझे मैं मेरे दोस्तों मे शुमार करता हूँ
ध्यान से सुन तुझे मैं मेरा राज़दार करता हूँ
मुझको दे जाता है वो शख्स हमेशा ही धोखा
फिर भी भरोसा मैं उसका बार-बार करता हूँ
देगी तू मौत मुझे इक तो दिन थक करके
ज़िंदगी इतना तो तुझपे एतबार करता हूँ
मेरा जनाज़ा न उठाओ उनको ज़रा आने दो
दो घड़ी और रुक के उनका इंतज़ार करता हूँ
वो पूछते हैं, "प्यार करते हो कितना हमसे "
कम ही होगा जो कहूँ बेशुमार करता हूँ
कैसे मैं छोड़ दूँ घर बार सब तेरी खातिर
तुझसे ही नहीं माँ से भी प्यार करता हूँ
Comment
कैसे मैं छोड़ दूँ घर बार सब तेरी खातिर तुझसे ही नहीं माँ से भी प्यार करता हूँ
विक्रम श्रीवास्तव जी ग़ज़ल अच्छी लगी, अंतिम शेर बेहद खुबसूरत बन पड़ा है, दाद कुबूल करे |
बहुत ही सुन्दर भाव पिरोया है आप ने अपनी ग़ज़ल में| मुझे शिल्प का ज्यादा ज्ञान नहीं| अतः mai इस पर कोई कमेन्ट नहीं कर सकता|
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