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कविता :- आदमखोर
तुमने हमारे खेतों में खड़ी कर दीं चिमनियाँ 
बिछा दिए हाई - वे के सर्पिल संसार
बना दिए विकास के नाम पर मानवता के आंवे
और अब चाहते हो हम लायें एक और हरित क्रांति  ?
 
क्या तुम नहीं जानते कि हाई वे पर दनदनाते वाहन
अपने साथ उड़ा लाते हैं विकास की अंधी दौड़ की धूल
जहां नस्लें हल उठाना अपनी तौहीन समझती हैं
और दहलीज की संस्कृतियाँ भाग जाती हैं दबे पाँव
शहर की ओर उन्मुक्तता की तलाश में
 
शायद तुम ये भी नहीं जानते कि मजदूर तब उठाते हैं बंदूकें
जब उनका हक मारा जाता है और आवाज़ कर दी जाती है अनसुनी
तुम्हारे सपने उन्हें कुछ नहीं देते बल्कि छीन लेते हैं
खेतों की  बालियाँ माटी और स्वभाव का सोंधापन
जहां आदमी की बढती जाती है प्यास और वो हो जाता है आदमखोर
 
कितनी दुनिया बसाओगे तुम इस छोटी सी दुनिया  में
कहीं आयातित पित्ज़े लोगों के शौक
कहीं नून तेल और प्याज के भी लाले
कहीं पांचतारा स्कूल कालेज
और कहीं टाट को मोहताज हाथों में थाली लिए
बहती नाक पोंछते बच्चे
कहीं फार्मूला वन की रफ़्तार
कहीं पगडंडियों पर भी भ्रष्टाचार की मार
कब देखोगे तुम सौ आँखों और सौ चश्मों से परे की दुनिया और उसका सच
हाँ कि अब जाग रहें हैं हम धीरे ही सही
सो तुम समेटो अपनी खोखली विकास की पोटली
कि हम सुदामा नहीं और उससे बढ़कर ये कि तुम कृष्ण भी नहीं |
 
                         -  अभिनव अरुण  {30102011}

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Comment by Abhinav Arun on February 8, 2012 at 8:13pm
Thanks a lot Nazeel ji !
Comment by Nazeel on February 7, 2012 at 5:58pm

बहुत बढ़िया रचना अभिनव जी .... हार्दिक बधाई ...:)

Comment by Abhinav Arun on February 7, 2012 at 5:36pm
Abhari hoon Ashutosh ji apne is rachna ka anumodan kar mera utsah badhaya hai.
Comment by Abhinav Arun on October 31, 2011 at 11:56am

thanks to ashish ji and satish ji for your comments.aap sabka sneh bana rahe yahi kamna hai .abhaar !!

Comment by आशीष यादव on October 30, 2011 at 9:06pm

aadarniy arun sir, bahut hi sarthak kawita ki rachna ki hai aapne. aaj ki hakikat saf saaf dikh jati hai is rachna me. 

कहीं आयातित पित्ज़े लोगों के शौक
कहीं नून तेल और प्याज के भी लाले
कहीं पांचतारा स्कूल कालेज
और कहीं टाट को मोहताज हाथों में थाली लिए
बहती नाक पोंछते बच्चे

kitni sahi baat hai. kaisi widambana hai hamare is desh me. 

aap ki dhardar lekhni ko mera salaam.

Comment by satish mapatpuri on October 30, 2011 at 8:46pm
कब देखोगे तुम सौ आँखों और सौ चश्मों से परे की दुनिया और उसका सच
हाँ कि अब जाग रहें हैं हम धीरे ही सही
अरुण जी, इस कविता के लिए ह्रदय से साधुवाद. आपकी रचना आत्मा तक को झिंझोड़ने का मादा रखती है. यह कविता मात्र नहीं है, यह एक दर्पण
है जिसमें विकास के नाम पर हो रहा  विनाश स्पष्ट परिलक्षित है
Comment by Abhinav Arun on October 30, 2011 at 7:45pm
sadhuvaad shri Rohit Ji apki utsahvardhak tippani ke liye.aur Jawabi kavita bhi Zabardast hai ! Thanks.
Comment by Rohit Sharma on October 30, 2011 at 5:50pm

किसी कवि ने कहा भी है: तुम यह मत समझो कि सरकार जो हफ्ते या दो हफ्ते में तुम्हारे घर तक जो सड़क बना रही है, उसपर चलकर तुम शहर जाओगे और शाम तक घर लौट आओगे. यह भी सोचो की इसी सड़क होकर आयेगी सरकारी फौज और तुम्हारा गांव पल भर में जलकर राख हो जायेगा.

Comment by Rohit Sharma on October 30, 2011 at 5:37pm

जबरदस्त. इतनी अच्छी रचना के लिए साध्ुवाद !

Comment by Abhinav Arun on October 30, 2011 at 3:01pm

आदरणीय श्री सौरभ जी आपकी इस सटीक - सशक्त टिप्पणी ने कविता को एक प्रकार से संजीवनी बख्शी है | आपकी इस समालोचना को पढ़कर कविता के नए आयाम पाठकों के सामने आते है | यही आपकी समीक्षक की शक्ति है, उसको मेरा सादर नमन है |

आपसे मुलाक़ात होने पर मैंने आपकी भाषा और आपकी लेखन-शक्ति पर चमत्कृत होकर कहा पूछा था कि आपको अपनी कविताओं का संकलन ज़रूर निकलना चाहिए | आप वास्तव में समकालीन हिंदी साहित्य के अमूल्य रत्न हैं और आपको सामने लाना आपका खुद का कर्त्तव्य भी है | और आप समर्थ भी हैं अतः इस ओर अवश्य सोचें | आज दुखद है कि नेट पर सक्रिय हिंदी प्रेमियों को हिंदी साहित्य के कथित समीक्षक लेखक नहीं मानते | आप जैसे लोग इस मिथ को तोड़ सकते है | ओबीओ का इस दिशा में किया जा रहा प्रयास सराहनीय है | धीरे ही यहाँ एक सशक्त साहित्य मंच बन रहा है | पुनः आपको हार्दिक नमन !!

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